10/07/2014

कर्म ही आनंद है

वर्ल्ड कप फुटबॉल के सेमीफाइनल में आखिरकार मेजबान ब्राजील जर्मनी से हार गया। सारे मीडिया ने इस मैच को जमकर कवरेज दिया... आखिर तो दुनिया के एक बड़े हिस्से में फुटबॉल जुनून है... हमारी भाषा में कहें तो धर्म... जैसे हमारे यहाँ क्रिकेट है... धर्म। तो ब्राजील जो कि फुटबॉल विश्वकप खिताब के दावेदारों में था वो सेमीफाइनल में ही बाहर हो गया।
खुद ब्राजील में आँसुओं का सैलाब आ गया। वहाँ लोग निराशा और हताशा में हिंसा और आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं। देशी-विदेशी मीडिया और सोशल मीडिया उस हार का जमकर मजाक बना रहे हैं। हार को इतना बुरा, इतना शर्मनाक बना दिया है कि अब हार हाल में जीतना एक मूल्य हो गया है। तभी तो जीतने के लिए हर नैतिक-अनैतिक, जायज-नाजायज उपाय अपनाए जाते हैं। क्योंकि हर हाल में जीत ही सबसे बड़ा और सबसे पहला सच है।
सोचें तो खेलों की ईजाद के पीछे बहुत सारा दर्शन और वजहें रही होंगी... आनंद, जोश, स्फूर्ति, व्यायाम, सामंजस्य, धैर्य, प्रबंधन, संतुलन ... और भी कुछ, लेकिन इसका मतलब सिर्फ और सिर्फ जीत हासिल करना तो कतई नहीं रहा होगा, लेकिन आज खेल का मतलब ही जीत है। चाहे चीन में ओलंपिक की तैयारी से संबंधित रिपोर्ट पढ़ लें या फिर फुटबॉल वर्लड कप के मैचेस में दिखाई देती हिंसा... इस बार ही ऊरग्व के सुआरेज ने इटली के खिलाड़ी जॉर्जिया चेलिनी को कंधे पर काट लिया... और ये उसने तीसरी बार किया है। इसी के एक दूसरे मैच में कोलंबिया के युवान जुनिगा ने ब्राजील के नेमार को अपने घुटने से इतनी बुरी तरह से मारा कि उसकी रीढ़ की हड्डी में चोट आ गई और वो वर्ल्ड कप खेलने के लायक नहीं रहे। आखिर हम खेलों के माध्यम से क्या सीखा रहे हैं? समझ नहीं आता कि खेल, खेल रहे हैं या फिर युद्ध लड़ रहे हैं?
हार भी तो खेल का ही हिस्सा है। हाँ असफलता तोड़ती तो है, लेकिन जिस तरह से रात और दिन जिंदगी का हिस्सा है, सुख-दुख, धूप-छाँव जीवन का हिस्सा है, उसी तरह हार और जीत भी...। आखिर ऐसा कौन है, जिसे जीवन ने हमेशा दिन-सुख-छाँह-जीत ही दिया है? जिसे सुख मिलता है उसे दुख भी मिलता ही है और खेल ही तो हमें ये सिखाते हैं सिखा सकते हैं कि हार भी जिंदगी का ही हिस्सा है।
ये समझ नहीं आता कि खिलाड़ी खेलते हुए आनंद लेते हैं या फिर बस सारा ध्यान हर हाल में जीतने का ही होता है। अनुभव कहता है कि जब हम कर्म करते हुए परिणाम पर ध्यान लगाए रहते हैं तो फिर कर्म का मजा खत्म हो जाता है, न तो हम कर्म से संबंद्ध हो पाते हैं और न ही कर्म से हम संतोष पाते हैं। वो बस एक यांत्रिक क्रिया होकर रह जाता है, जिसमें न रस है, आनंद और न ही संतोष... वो बस एक क्रिया है।
थोड़ी पुरानी घटना है, ट्रेन में सफर कर रही थी और बहुत सारे लोग किसी सम्मेलन में भाग लेने के लिए जा रहे थे। (बाद में पता चला कि वे वामपंथियों रैली में हिस्सा लेने पंजाब जा रहे थे) उनकी आपस की बातचीत सुन रही थी... उसका निचोड़ ये था कि पूँजीवाद सिर्फ आर्थिक प्रणाली नहीं है, इसके असर बहुत गहरे होंगे, ये जीवन के हर क्षेत्र में गहरे और स्थायी प्रभाव पैदा करेगी। बात तब ज्यादा समझ नहीं आई थी। लगा था कि पैसा आ जाने से जीवन-शैली में बदलाव होगा, कला-साहित्य-संस्कृति-अध्यात्म और दर्शन में कैसा और क्या बदलाव होगा... हो सकता है। जैसा कि होता है, हर नई चीज़ जो मन को भाती है, जहन के किसी कोने में स्थापित हो जाती है। वक्त बहुत धीरे-धीरे उस पर से धूल झाड़ता चलता है और एक दिन वो सिद्ध होती है... या सही या गलत...। तो उस दिन की वो बात सही सिद्ध हुई।
भौतिकवादी जीवन-शैली हमारे जीवन से आंतरिकता छीन रही है। जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे हमारे जीवन में physicality शामिल होती जा रही है और न सिर्फ शामिल हो रही है, बल्कि वह विस्तार पा रही है। हमारा प्रयासों में... कोशिशों में... सफर में... यकीन कम हो चला है। हम बस परिणामों की तरफ ही देखते हैं। हम कर्म का आनंद भूल गए हैं और परिणामों की उपलब्धि को ही खुशी का स्रोत समझने लगे हैं। तभी तो हमारा सारा लक्ष्य बस रिजल्ट्स पर ही हुआ करता है। खेलों में इस तरह की प्रवृत्ति इसमें आ रहे बेशुमार धन की वजह से भी पैदा हुई है... बात तो वही है न... भौतिकता... फिजिकलिटी...! तो फिर रस कहाँ है, आनंद कहाँ है, जहाँ हिंसा हो, द्वेष और ईर्ष्या हो, जहाँ दबाव हो हर हाल में बेहतर सिद्ध होने का वहाँ कहाँ से रस, आनंद और तृप्ति आ सकती है?
हम अपने आस-पास जहाँ भी नजर दौड़ाएँ हर तरफ भौतिकता पसरी पड़ी है... भौतिकता सिर्फ वस्तु नहीं ये एक विचार है, एक जीवन-शैली भी। सुंदर चेहरों से लेकर खूबसूरत फोटो तक... भव्य शादियों से लेकर महँगे मोबाइल और उतने ही मँहगे कपड़ों तक। बाजार ने हमें दो शब्द दिए हैं, १. परफार्मेंस और २. टारगेट... और इन दोनों ने हमारे जीवन से रस सोख लिया है। हमारे कर्मों का सारा निचोड़ सिर्फ परिणामों पर हुआ करता है और उसके लिए हम नैतिक-अनैतिक, सही-गलत हर तरह के उपाय अपनाते हैं।
जाने कर्म करें औऱ फल को ईश्वर पर छोड़ देने वाले गीता के आप्त-वाक्य का गूढ़ार्थ क्या रहा होगा... हम तो बस इतना समझे हैं कि कर्म करते हुए उसमें डूब जाना और कर्म को ही लक्ष्य बना लेने से जीवन आनंदमयी होता है। क्योंकि चाहे इसे हम भाग्यवाद कह लें या फिर बहुत कर्मवादी हो जाएँ तब भी सच सिर्फ और सिर्फ इतना है कि महज कर्म पर ही आपका अधिकार है... परिणाम पर नहीं।

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