16/10/2009

गुम हो चुकी लड़की.....अंतिम कड़ी


गतांक से आगे
शाम पाँच बजे ही रिज़वान ने मुझे उसके अपार्टमेंट के नीचे छोड़ा... जब निकलना हो तो मुझे फोन कर लेना... और नहीं तो....---कहकर बात अधूरी छोड़ कर आँख मारी।
मुझे अच्छा नहीं लगा।---मैंने रूखाई से कहा, मैं पहुँच जाऊँगा, यू डोंट वरी।
नीली कैप्री और पिंक टाइट टी-शर्ट पहने उसने दरवाजा खोला...वेलकम।
खुला-खुला सा हॉल.... जिसमें सामने ही नीचे मोटा गद्दा लगा हुआ था और उसपर ढेर सारे कलरफुल कुशन पड़े हुए थे। आमने-सामने बेंत की दो-दो कुर्सियाँ और बीच में बेंत की ही ग्लास टॉप वाली सेंटर टेबल पर नकली फूलों से सजा गुलदान....। उसकी प्रकृति और स्वभाव के बिल्कुल विपरीत...खिड़की तो नहीं दिखी, लेकिन गद्दे के पीछे वॉल-टू-वॉल भारी पर्दे पड़े हुए थे। वह अंदर से पानी लेकर आई। सुनाओ....
मैं क्या सुनाऊँ, तुम सुनाओ....कैसा चल रहा है?
बस चल रहा है।
थोड़ी देर हम अतीत से सूत्र पकड़ने की कोशिश में ख़ुद में डूब गए...कोई सिरा ही पकड़ में नहीं आ रहा था। तभी कहा--तुम बहुत बदल गई हो....।
हाँ तुम जिस लड़की की बात कर रहे हो वह एक छोटे शहर की मिडिल क्लास वैल्यूज के सलीब को ढोती लड़की थी, जो कुछ भी नहीं थी.....जिसे देख रहे हो, वह मैट्रो में रहती और ग्लैमर वर्ल्ड में काम करती है, जहाँ लैग पुलिंग है, थ्रोट कटिंग...कांसपिरेसी और इनसिक्योरिटी है....यहाँ तक पहुँचना ही काफी नहीं है, यहाँ पर टिके रहना ज्यादा मुश्किल है। 'कुछ नहीं' होने से 'कुछ' हो जाने का सफर बहुत तकलीफदेह होता है। बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है, फिर पता नहीं क्या सच है, जो छूट जाता है, वहीं सबसे ज्यादा अहम होता है या फिर जो अहम होता है, वहीं छूट जाता है, हर उपलब्धि की कीमत चुकानी होती है...यह कीमत उनके लिए ज्यादा होती है, जो संवेदनशील हैं....नहीं तो सफलता का नशा सिर चढ़कर बोलता है.... वह थोड़ी देर रूकी थोड़ी उदास हो गई...फिर मुस्कुराते हुए बोली--- तुम तो इसे बेहतर तरीके से जानते हो...--- लंबी फ़लसफ़ाना बात करने के बाद वह अक्सर उसका ऐसे ही समापन करती है।
फिर दोनों ख़ामोश हो गए....। इस बार चुप्पी उसने तोड़ी-- अच्छा बोलो क्या खाओगे?
जो फटाफट बन जाए...।
खिचड़ी....? अरे नहीं... मैंने तुम्हें बुलाया है और डिनर में खिचड़ी खिलाऊँगी? कुछ और सोचो।
चलो कहीं बाहर चलकर खाएँ.... बिल तुम दे देना...- मैंने प्रस्ताव रखा।
उसने वीटो कर दिया।---- नहीं, हम यहीं ऑर्डर कर देते हैं, इज दैट ओके....?
उसने फोन कर आठ बजे खाने का ऑर्डर कर दिया। तब तक कॉफी और कुछ स्नैक्स ले आई।
अच्छा, लिखने के लिए इनपुट्स क्या होते हैं, तुम्हारे....?
प्रायमरी आइडिया होता है, बस उसके बाद तो जिस दिशा में व्यूवर चाहता है, कहानी चलती जाती है, इट्स बोरिंग... नो क्रिएटिविटी एट ऑल....।
फिर तुम....! हाउ कैन यू वर्क....?
मैं... मैं एक नॉवेल लिख रही हूँ, तकरीबन पूरा होने आया। आई मस्ट फाइंड सम क्रिएटिविटी आउट ऑफ माय जॉब टू सेटिस्फाई मायसेल्फ.....अदरवाइज नो वन कैन सेव मी टू कमिट स्यूसाइड....--उसकी आँखों में कुछ भयावह-सा उभरा...।
एंड नॉवेल ऑन....?
यू नो, जो उस छोटे शहर से लाई हूँ, उसी को अदल-बदल कर पका रही हूँ। जिस दिन वो सब खत्म हो जाएगा, लौटना पड़ेगा या फिर यहीं कहीं दफ़्न होना पड़ेगा। इन सालों में मैंने जाना है कि मैट्रोज या बड़े शहर कुछ प्रोड्यूज नहीं कर पाते हैं, दे आउटसोर्स इच एंड इवरीथिंग.....इवन इमेजिनेशन....क्रिएटिविटी एंड ओरिजनलिटी ऑलसो....। सारे लोग जो इस शहर के आकाश में टिमटिमा रहे हैं, वे सभी छोटे शहरों से रोशनी लेकर आए हैं, इस शहर को जगमगाने के लिए....। अभी इस पर विचार करना या रिसर्च करना बाकी है कि ऐसा क्यों होता है, क्या बहुत सुविधा ये सब कुछ मार देती है या फिर समय की कमी इस सबको लील जाती है....?
मैं उसे बोलते देख रहा हूँ और सोच रहा हूँ.... कि मैंने अपने जीवन से अब तक क्या सीखा....? किस मोती को मैं अपने में उतर कर लेकर आया....क्या उसने सच नहीं कहा था कि कभी ख़ुद के साथ भी रह कर देखो....!
अब मेरे सवाल चुक गए हैं....मेरा उत्साह मर गया है, वो मुझे बहुत दूर जाती हुई दिख रही है। एक आखिरी बात जो उस शाम मैंने उससे कही थी---- मैंने तुम्हें जब भी इमेजिन किया मुझे मौसमों का इंतजार करती लड़की के तौर पर तुम याद आई....क्या अब भी तुम मौसमों का इंतजार करती हो....?
उसकी आँखों में नमी तैरी....उन भारी पर्दों की ओर इशारा करते हुए उसने कहा-- इन पर्दों के उस पार मौसम आकर निकल जाते हैं, न मैं कभी इन्हें हटाती हूँ, न कभी वे ही मुझसे मिलने अंदर आए....मुझे डर कि कहीं मैं उनमें उलझकर फिर से आम न हो जाऊँ और वे.... उन्होंने तो कभी किसी को खींचा ही नहीं जब हम सहज होते हैं तो उनके प्रवाह में बह जाते हैं, लेकिन जब हमसे सहजता छिनती है तो फिर सबसे पहले वे हमें किनारे पर छोड़ देते हैं।
सब कुछ बहुत बोझिल हो गया। मैंने उसके हाथ पर अपना हाथ रखा.... वह काँपी फिर स्थिर हो गई और देखती रही, उसकी आँखों में एकसाथ बहुत कुछ उमड़ा और मुझे लगा कि पहले ही हमारे रास्ते कभी एक नहीं थे, अब तो दिशाएँ ही अलग हो गई है। पहले उसका वैसा होना मुझे भाता था, मेरा होना सार्थक लगता था, लेकिन अब.... मैं वहीं हूँ और वो बहुत दूर जा चुकी है, बल्कि यूँ कहूँ कि वह गुम हो चुकी है।
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मैं रिज़वान के साथ लौट रहा हूँ.....वह बहुत खुश है, मैं उसके साथ उदास हूँ, क्यों? कोई कारण दिखता नहीं। उसने कार में म्यूजिक सिस्टम ऑन कर दिया। फिर से ग़ुलाम अली गा रहे हैं---
फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था
सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था...
गाड़ी चल रही थी। ठंडी हवा हल्के-हल्के से सहला रही थी और ये मुम्बई की सड़क चले जा रही थी......चले जा रही थी.....।
समाप्त

3 comments:

  1. दीपपर्व की अशेष शुभकामनाएँ।
    आपकी लेखनी से साहित्य जगत जगमगाए।
    लक्ष्मी जी आपका बैलेंस, मंहगाई की तरह रोड बढ़ाएँ।

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    पर्यावरण और ब्लॉगिंग को भी सुरक्षित बनाएं।

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  2. antim kadi padhne ke baad main khud ko baaki ki kadiyan padhne se rok nahi paaya..
    bahut accha likha hai aapne...
    aur ghulam ali ji ki wo ghajal sun raha hun abhi!!!

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  3. अगली बार उपन्यास लिखने के लिए शुभकामना....गुड कहानी....

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