03/02/2011
... और नहीं बच पाए मानसिक प्रदूषण से भी
जैसे हकीकत में दुख और निराशा होती है, वैसे ही काल्पनिक दुख और निराशा भी होती है। अब जैसे एक दुख ये भी है कि आज से लगभग 2300-2400 साल पहले स्थापित प्लेटो की अकादमी में हमारा एडमिशन नहीं हो पाता क्योंकि हमारा गणित में हाथ तंग है। वैसे तो वहाँ एडमिशन के लिए संगीत (इसमें साहित्य भी शामिल है) या दर्शन या गणित में से किसी एक विषय की समझ होना अनिवार्य शर्त थी, औऱ संगीत, साहित्य के साथ-साथ दर्शन भी थोड़ा बहुत तो समझ में आता ही है, लेकिन गणित... वो तो दुखती रग है। तो हुआ ना ये काल्पनिक दुख... फिर सिर्फ गणित में ही क्यों, विज्ञान में भी तो हाथ तंग है। तो जब प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे, उसी दौरान सामान्य गणित और सामान्य विज्ञान को पढ़ने की मजबूरी सामने आई थी। उन्हीं दिनों चुनाव, संसद, संविधान, सिद्धांत, इज्म से इतर कुछ पढ़ा गया था, जैसे पर्यावरण और पर्यावरण प्रदूषण... विज्ञान के अनुसार मोटे तौर पर प्रदूषण के चार प्रकार वायु, ध्वनि, मिट्टी और पानी है, ये सब प्राकृतिक जीवन के उलट जीने का परिणाम है, लेकिन पिछले कई दिनों की विचार और अहसास प्रक्रिया से प्रदूषण का एक और प्रकार अन्वेषित किया है, जिसका संबंध अमूर्त विज्ञान से नहीं, बल्कि मनोविज्ञान से है, वो है मानसिक प्रदूषण...।
कहने को एक बार कह गए थे कि – अजीब दौर है ये, यहाँ अच्छाई अविश्वसनीय हो चली है। पता नहीं कैसे ये गफ़लत हो गई थी कि ये दुनिया का सच है, यहाँ अभी ऐसा दौर नहीं आया है, लेकिन जैसा कि होता है, परिवर्तन एक बहुत सुक्ष्म प्रक्रिया है और ये तब महसूस होती है, जब इसके परिणाम आने लगते हैं।
एक प्रकाशक एक विशेष कालखंड में हिंदी साहित्य की प्रकाशित हर विधा की किताबों की समीक्षा की एक पत्रिका निकाल रहे हैं। साहित्य में रूचि होने की वजह से उस पत्रिका की समीक्षा की जिम्मेदारी मिली। मसला ये है कि साहित्यिक समीक्षा के विचार से शुरू से ही असहमति रही है। लगता है, जैसे समीक्षा से किताब के रस की हत्या कर दी जाती है। किताब समीक्षक को कैसी लगी, ये एक अलग मसला है, लेकिन उसकी शैली, कथ्य, भाषा और शिल्प का पोस्टमार्टम यदि गुरुगंभीर साहित्यिक समीक्षक औऱ आलोचक करते हैं तो समीक्षा पढ़ने के बाद अक्सर यूँ लगता है कि इससे बेहतर होता, सीधे किताब ही पढ़ ली जाती। ये ठीक वैसा है जैसे किसी बहुत खूबसूरत गज़ल का विजुवलाइजेशन कर दिया जाए। सुनकर की जा सकने वाली कल्पनाओं की हत्या...(हो सकता है, इसे पुराना विचार करार दिया जाए।) मतलब रेडिमेड कल्पनाएँ। मतलब हमारे अंदर अँकुरित होने वाली कोंपलों पर पाला पड़ गया हो। हाँ पत्रिका की समीक्षा एक अखबारी कर्म है और इसमें ज्यादातर सूचनाएँ ही प्रेषित की जाती है, पोस्टमार्टम जैसी समीक्षा का गंभीर कर्म नहीं किया जाता है तो अखबार के शेड्यूल को साधते हुए अपने काम पर लग गए। जब समीक्षा के लिए पत्रिका को पढ़ना शुरू किया तो ये देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि पत्रिका में सिर्फ अपने ही प्रकाशन-गृह से प्रकाशित किताबों को शामिल नहीं किया गया है, बल्कि हिंदी के लगभग सारे बड़े प्रकाशन-गृहों से प्रकाशित किताबों की समीक्षा को शामिल किया गया है। एकाएक प्रश्न कौंधा... – इससे पत्रिका के प्रकाशक को क्या फायदा है?
इस एक प्रश्न ने हमें ये अहसास दिलाया कि चाहे खुद को बचाने की आपने कितनी ही कोशिशें की हो, लेकिन मानसिक प्रदूषण से फिर भी बचाव नहीं हो पाया है।
मतलब बाजार ने हमें ऐसी नजर दे ही दी है कि बिना नफे-नुकसान के किसी के काम को देख ही नहीं सकते हैं। और जो बहुत सहज मानवीय चीजें हैं, उसे जुनून कह कर सामान्य जीवन से खारिज करने लगे। तो हमें लगा कि दूसरे और तरह के प्रदूषणों की तरह मानसिक प्रदूषण भी सामयिक परिवर्तनों का परिणाम हैं, लेकिन प्रदूषण तो आखिरकार प्रदूषण ही है ना... इसके दुष्परिणाम तो होने ही हुए। तो अब होने ये लगा है कि यदि किसी को प्रचलित इम्प्रेशन से उलट कुछ करता पाते हैं तो अंदर कहीं कुछ भीग जाता है, लेकिन... तुरंत मानसिक प्रदूषण का प्रभाव लहरा जाता है, और उसके कर्म से आगे नीयत के छिलके निकाले जाने लगते हैं... इससे बुरा क्या...? सहज चीजों के प्रति अविश्वास और सकारात्मक ऊर्जा पर अविश्वास का हावी हो जाना... जैसे हम पृथ्वी को वायु और ध्वनि प्रदूषण से नहीं बचा पाए, उसी तरह से हम खुद को मानसिक प्रदूषण से नहीं बचा पाए... यही तो है बाजार का प्रभाव...।
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u r a goooood person...
ReplyDeleteप्राकृतिक प्रदूषण भी इंसानों की पैदा की हुई चीज है और मानसिक प्रदूषण के जिम्मेदार भी इंसान ही हैं। आज भागदौड भरी दुनिया में इंसान खुद को भूल गया है और मशीनीकरण के दौर में हर तरह के प्रदूषण का शिकार है। आपने अच्छे विषय को लेकर लिखा और इस पर चिंतन करने की जरूरत है।
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट के लिए आपको बधाई।
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पर्यावरण प्रदूषण और मानसिक प्रदूषण दोनों से बचा जा सकता है अगर आदमी अपनी सोंच सही रक्खे तो.
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