01/05/2013

मई दिवस, मार्क्स और बचपन

कोई-कोई बचपना भी अजीब होता है... बहुत, बहुत अजीब। ये न बचपना कहलाता है और न ही परिपक्वता... जाने इसे किस कैटेगरी में रखेंगे... मई दिवस के मौके पर ये बचपना लगातार ज़हन पर दस्तक दे रहा है। इसे तब बचपना कहा जा सकता था, लेकिन आज क्या कहा जाए, ये सवाल भी परेशान कर रहा है।
जाने ये चेतना कब आई, लेकिन जब भी आई तब से मई दिवस एक खास दिन की तरह... किसी त्योहार की तरह लगता रहा है। बचपन के उन दिनों में इस दिन कुछ नया और खुशनुमा फील होता रहा... अब भी होता है... जैसे कुछ बहुत-बहुत अपना हो, निजी... बेहद पर्सनल। तब जाने कैसे समझ ने मई दिवस का संबंध मार्क्स के जन्मदिन से जोड़ लिया था। मार्क्स... जब नहीं जानती थी, तब ईश्वर-तुल्य हो गए थे... क्यों, न तब समझी, न अब...। शायद बचपना इसी को कहते होंगे। पूँजीवादी परिवेश और ‘प्रवत्ति’ (या फिर उपभोगवादी प्रवृत्ति ज्यादा सटीक होगा, लेकिन प्रकारांतर से बात तो वही होगी ना!)... पूरी तरह से नहीं, लेकिन हाँ, इससे खुद को अलग दिखा पाऊँ, ऐसा नैतिक साहस नहीं पाती, तब भी मार्क्स, जाने कैसे हीरो हो गए थे...। तब तो ये भी नहीं जाना था कि आखिर ये हैं कौन और मार्क्सवाद बला क्या है? अब सोचती हूँ तो कोई ऐसा टर्निंग पाईंट नहीं पाती, जहाँ से इस इंसान से पहला परिचय हुआ हो... बस, याद आता है तो इतना कि जिस उम्र में लड़कियों को जवान और खूबसूरत लड़कों के प्रति फेसिनेशन हुआ करता था, उस उम्र में मुझे मार्क्स और मार्क्सवाद फेसिनेट करने लगा था। और सच पूछें तो आज भी उस आकर्षण से मुक्त नहीं हो पाई... अब भी व्यवस्था पर चलती बहस को अक्सर मार्क्सवाद की रिलेवेंसी पर कनक्लूड करती हूँ। यूँ मई दिवस या मजदूर दिवस का मार्क्स से कोई सीधा संबंध नहीं है, सूचना में सही है, लेकिन चेतना में तो वही है... मई दिवस मतलब मार्क्स का आह्वान... फिर वही बचपना...।
फिर लेनिन, चे, कास्त्रो और ह्युगो रियल हीरोज की लिस्ट में शामिल होने लगे और इंस्पायरिंग हीरो के तौर पर निकोलाई बुखारिन, ट्रॉटस्की, अंटोनियो ग्राम्शी, जॉर्ज लुकास और पूँजीवाद और अमेरिका विरोध करते हुए नॉम चोमस्की भी लिस्ट में आ गए। हर वो अंतर्राष्ट्रीय घटना, जिससे मार्क्सवाद का क्षरण हुआ, उसने निराश किया और हर वो घटना जिससे उस बुझती आग में चिंगारी भड़की उसने मुझे उत्साह से भर दिया। सोवियत संघ का पतन, पूर्वी यूरोप में मार्क्सवाद का खत्म होना और आखिर में इतिहास के अंत ही घोषणाओं और हाल ही में ह्युगो की मौत ने बुझा दिया और कास्त्रो का संघर्ष, लेटिन अमेरिका में ह्युगो शॉवेज का उदय... इटली, फ्रांस और जर्मनी के चुनावों में वामपंथियों की विजय के समाचार उत्साहित करते रहे। आज भी जबकि मार्क्सवाद सिर्फ विचारों में ही बचा है, जाने कैसे इसके हकीकत में ‘जिंदा’ होने की उम्मीद जिंदा है... भीतर। एक और बचपना...। लगता है इस बचपने से बुढ़ापे तक निज़ात नहीं है। मजदूर और मजदूरों से यूँ कभी कोई वास्ता नहीं रहा, लेकिन मार्क्स ने अपने विचारों से कोई सूत्र तो जोड़ा ही है... कुछ बातें जीवन भर रहती है, ज़हन में वैसी ही, जैसे बचपन में थी, उसी रंग-रूप-आकार में... कुछ को हम वैसे ही सहेजना भी चाहते हैं... बस इस बात के साथ कुछ ऐसा ही है। अब आप चाहे तो इसे भी कह सकते हैं … बचपना...

13/03/2013

रिश्तों का प्रोटोकॉल... :-)




जानने का क्रम तो हर वक्त चलता ही रहता है, लेकिन हर बार का जानना समझ तक कब पहुँचेगा ये कहा नहीं जा सकता है। अब अंतर्राष्ट्रीय संबंध पढ़ने के दौरान जाना था कि चाहे दो देश युद्धरत हों, लेकिन उनके राजनयिक संबंध फिर भी बने रहते हैं। मतलब दो देशों के बीच युद्ध चल रहा है, लेकिन राजदूत दूसरे देश में उसी तरह कार्य करते रहते हैं, जैसे शांतिकाल में काम करते हैं।
डिप्लोमेसी के प्रोटोकॉल के तहत राजदूतों की वापसी संबंध खत्म होने का संकेत है। मतलब ये कदम बहुत गंभीर स्थितियों में ही उठाया जाता है। युद्ध से भी ज्यादा गंभीर है राजदूतों को वापस बुला लिया जाना... एक तथ्य था, जिसे जस-का-तस ग्रहण कर लिया।


ननिहाल चूँकि शहर से बाहर था, इसलिए ताईजी का मायका ही हमारा ननिहाल हुआ करता था। उस पर वहाँ थे हमउम्र बच्चे... अब ये अलग बात है कि ताईजी को लगता था कि मुझे छोड़कर दुनिया में हर बच्चा बदमाश है और मुझे परेशान करना हर बच्चे का एक-सूत्री कार्यक्रम ही है। इसलिए वे अपने भतीजों-भतीजियों से-जो कि मेरे हमउम्र हुआ करते थे और इसलिए उनके साथ खेलने का लालच भी हुआ करता था-दूर ही रखती थीं।
खैर थोड़े-थोड़े बड़े हुए तो सारों में ही जैसे समझ आ गई और लड़ाई-झगड़े कम हो गए। ताईजी को भी यकीन हो गया कि सारे बच्चों ने अपने कार्यक्रम में तब्दीली कर ली है, सो अब गाहे-ब-गाहे हम ‘मामा’ के घर में ही रहने लगे। तीन मंजिला मकान के हर फ्लौर पर एक परिवार रहता था... तीन भाईयों का परिवार जो था... आने-जाने का रास्ता एक ही था, इसलिए वैसा ‘सेपरेशन’ नहीं था, जैसा कि फ्लैट्स में हुआ करता था। फिर इतने सारे बर्तन थे तो हर दिन खड़कने की आवाजें आया करती थी। ‘छोटे’ बर्तनों के खड़कने से ज्यादा आवाज़ तो ‘बड़े’ बर्तनों के खड़कने की आया करती थी, लेकिन छोटों की दुनिया पर उसका कोई असर नहीं हुआ करता था।
खिचड़ी सारे बच्चों की पसंदीदा डिश हुआ करती थी। और ये तय था कि जिसके भी घर में खिचड़ी बननी हैं, सारे बच्चे उसी घर में धावा बोलेंगे। और ऐसा मंजर बहुत बार पेश आया कि किसी के घर में खिचड़ी खाने के लिए बच्चे जमा हुए हैं, बच्चे बहुत प्रेम औऱ चाव से खिचड़ी खा रहे हैं, लेकिन बच्चों की माँओं के बीच जमकर तकरार हो रही है। मतलब बच्चे एक-दूसरे को छेड़ भी रहे हैं, थाली में से मूँगफली के दाने या फिर मीठे अचार की फाँके चुराकर खा रहे हैं और मीठी-मीठी लड़ाईयाँ भी कर रहे हैं, लेकिन बड़ों की तकरार के प्रति बिल्कुल उदासीन है।

बचपन का ये किस्सा और फिर यूनिवर्सिटी में पढ़ा सबक….. ये समझ के किस सूत्र तक ले जा रहे हैं? डिप्लोमेसी ये कहती है कि संवाद हर सूरत में कायम रहना चाहिए... तमाम युद्धों और खराब हालात के बावजूद... क्योंकि बात से ही बात निकलती है। ये सूत्र व्यक्तिगत रिश्तों से लेकर देशों के बीच के रिश्तों पर भी समान रूप से लागू होती है। कह लें, निकाल लें मन की भड़ास... फिर बढ़े आगे... यदि रिश्ता बनाए रखना चाहते हैं तो... चुप रहने से गड़बड़ाते हैं रिश्ते, घुट जाती हैं भावनाएं और बंद हो जाते हैं, एक-दूसरे की ओर जाने वाले रास्ते... फिर...!





06/03/2013

चलो बनाएँ अपना स्वर्ग




‘‘यदि ईश्वर ने ही औरतों के लिए यह जीवन रचा है तो फिर कहना होगा कि आपका ईश्वर सामंतवादी पुरुष है...’’ -जब ये कहा था उसने तो कई लोगों ने उसे घूरकर देखा था... माँ ने भी। जाहिर है ये ईश्वर की सर्वशक्तिमान सत्ता की कथित नीतियों पर ‘अन्याय’ का आरोप था। और ईश्वर पर आरोप कतई-कतई सह्य नहीं है।
धीरे-धीरे जब उसने समाज को और बारीकी से जानने की कोशिश की तो उसे लगा कि धर्म के बहाने हर कहीं औरतों को मर्यादा, शालीनता, कर्तव्यपरायणता और समर्पण की हिदायतें दी जाती हैं, पालन करने के लिए कभी दंड की धमकी, तो कभी आदर्श होने का प्रलोभन... हो सकता है ये विचार सख्त महिलावादी लगे लेकिन वो इस तरह से सोचती है क्या किया जा सकता है?
उसे नजर आता है कैसे लड़कियों को अच्छी लड़की बनने के लिए किस तरह से उदाहरण दिए जाते हैं। क्यों सावित्री-सत्यवान और रति-कामदेव की कथाएँ कही जाती है, क्यों लक्ष्मी-विष्णु के हर केलैंडर में लक्ष्मी, विष्णु के पैर दबाती नजर आती है... क्यों सीता-त्याग को राम की मर्यादा पुरुषोत्तम वाली छवि से महिमामंडित किया जाता है? क्यों कृष्ण राधा को छोड़कर चले जाते हैं... वो प्रेम तो एक शादीशुदा महिला से कर सकते थे, लेकिन विवाह नहीं कर सकते थे... वो सोचती है, क्यों...? जवाब था एक ही... ‘ईश्वर सामंतवादी पुरुष है।’ लेकिन एक दिन उसे लगा कि जिसे हम ईश्वर समझते हैं, दरअसल वो तो बड़ी दुनियावी कल्पना है... ईश्वर तो निराकार, निर्विकार है... यदि है तो...। तो अब तक ईश्वर के नाम पर जो कूड़ा-कबाड़ फैला हुआ है, वो तो इंसान की ‘लीला’ है। मतलब... कि ये सारा जो ईश्वर के नाम पर धर्म में हुआ करता है, वो सब तो इंसानी करामात है...कुछ पूर्वाग्रही, कुछ पीड़ित और बहुत सारे षडयंत्रकारी पुरुषों के पूर्वाग्रह, कुंठा और षड़यंत्र... मामला साफ तब हुआ जब उसने वर्तमान में विचारों के जंजाल और बचपन की स्मृति के निहितार्थों के बीच संबंध स्थापित किया।
याद तो नहीं कि किस धार्मिक ग्रंथ के चित्र उसे दिखाए जाते थे, लेकिन उसमें छपे वे चित्र उसे अब भी उसी तरह याद है, जैसे उसने उस किताब में अपने बचपन में देखें थे। नर्क के फोटो... एक ही पेज पर कभी तीन तो कभी चार फोटो... ले-आऊट भी बड़ा अटपटा...। किसी फोटो में कुछ राक्षस जलती भट्टी के आसपास खड़े हैं और भटटी पर बड़े से कड़ाह में तेल गर्म हो रहा है। उसमें कोई मनुष्य पड़ा रो रहा है... वो कल्पना करने की कोशिश किया करती थी कि उस गर्म तेल से कितनी जलन हो रही होगी..., फिर किसी में मनुष्य को सुए चुभोए जाते हुए भी दिखाया गया था और भी कई... उन फोटो में स्त्री-पुरुष का कोई भेद नजर नहीं आता था... गोयाकि नर्क तो दोनों के लिए एक-सा ही था। और स्वर्ग... ? ये सवाल जब उसने बचपन में ही किया था तो जवाब देने वाला गफ़लत में आ गया था। स्वर्ग उसमें ठंडी-ठंडी हवाएँ बहती है, झरने बहते हैं, खूबसूरत फूल खिलते हैं, मद्य (सीधे कहते हुए भावना अकड़ी जाती है- दारू...) और सुंदरी...। उसने मान लिया, लेकिन उस दिन जब उसने कड़ियाँ जोड़ी तो सवाल उठा – ‘ये सब तो पुरुषों के लिए हैं, हम महिलाओं के लिए स्वर्ग कैसा है।’ जवाब था ही नहीं तो मिलता कैसे...? बस यहीं से उसके दुख शुरू हो गए। महिलाओं के लिए तो स्वर्ग है ही नहीं, मतलब उसके लिए तो दोहरा नर्क है... एक जो धार्मिक कथाओं में है और दूसरा ‘पृथ्वीलोक’... ‘मृत्युलोक’...। तो नर्क में तो कोई अंतर नहीं है, हाँ अघोषित रूप से स्वर्ग तो सिर्फ पुरुषों के लिए ही है...।

तो आजकल वो लगी है, स्त्रियों के लिए स्वर्ग का ‘कंसेप्ट’ बनाने में... आइए जरा उसकी मदद कीजिए... ।

01/03/2013

....और एक मलाल



फिर एक साल
और
एक मलाल
बढ़ती जाती है
फेहरिस्त
उम्र की तरह
...............
क्या छूटा है
करने, सीखने,
जानने, जीने से
कैसे कम होंगे ये मलाल
..............................
फिर जन्म लेना चाहूँगी
इन्हीं मलालों के साथ
ताकि दूर कर सकूँ
शिकायतें जो
खुद से हैं
........................
लेकिन जब तक
ये नहीं होता
तब तक
फिर एक साल
और एक मलाल