12/02/2013

ख्वाहिशों के 'स्पंज'-सी छुट्टी


एक शाम पहले ही टपकने लगती है
बूँदें...
'साथ' रहने की, खुद के करीब बैठ
जाने की...
मॉल में घूमने की, 'बीहड़' में भटक
जाने की...
थोड़ा-सा पढ़ने और बहुत कुछ को 'बना'
लेने की...
कुछ 'अच्छा' सुनने और फिर उसमें
डूब जाने की...
इकट्ठा होती रहती हैं ख्वाहिशें...
ख्वाहिशें... ख्वाहिशें...
शाम होते-होते बहुत कुछ होता है,
पूरी ताकत से निचोड़ लिया जाता है
छुट्टी का स्पंज...

फिर भी रह जाता है, बहुत कुछ
बचा... रह जाती है प्यास, जो
इंतजार करती है अगली छुटटी का

...और यूँ ही चलता रहता है प्यास और आस
का सफर...इसी तरह छुट्टी-दर-छुट्टी...

20/01/2013

...औऱ वो लौट आई है!

बहुत देर से दरवाजा थपथपाने की आहट हो रही थी, लेकिन लिहाफ की नर्म गुनगुनाहट से मोह हो गया और उस थपथपाहट को लगातार टालती रही, बहुत देर तक उसे अनसुना किया, लेकिन फिर रहा नहीं गया। उठकर दरवाजा खोला तो उत्तर से आने वाली बर्फीली हवा-सी वो सीधे उतर आई और धूप भरे आँगन में फैल गई। पहाड़ पर छाने वाले गीले-सीले कोहरे की तरह... और देखते ही देखते गुनगुना-सुनहरा आँगन हो गया उसी की तरह साँवला, ठंडा...उदास...। पिटारा खोलकर बैठी तो बचपन वाली टीन की पेटी से किताबों के अलावा निकलने वाला दीगर सामान बिखर गया... रंग-बिरंगी कंचे, पक्षियों के पक्ष, सूखे फूल और पत्तियाँ, नदियों के गोल-गोल पत्थर, समुद्र के सीप-शंख, कौड़ियाँ... बुने-अधबुने खयाल, सुबह-दोपहर-शाम-रात के खाली-सूने खोखे...। बार-बार ललचा रही थी अपने खजाने से... कोशिश तो की थी, दूरी बरतने की, लेकिन बचपन का प्यार ठाठें मार रहा था... फिर नहीं बच पाई उसके दुर्निवार आकर्षण से, दूरी बरतते-बरतते भी वो सरककर पास आ ही गई थी, पुराने-गहरे दोस्त की तरह घेर लिया था हर कोना...। अगरबत्ती की तरह सुलगती और महकती... नशे में डुबाती वो... लौट आई है, फिर से... वही उदासी... !

22/09/2012

छोड़कर जाओ तो आहत होता है घर



शाम होते ही तुम्हें घर लौटने की जल्दी क्यों मची रहती है?
...........................
बोलो....
पता नहीं, बस लगता है कि घर बुला रहा है।
घर... बुला रहा है। - उसने दोहराया था, थोड़ी खीझ और बहुत सारे आश्चर्य के साथ। हाँ...। – मैंने बड़े अनमनेपन से जवाब दिया था। उसकी खीझ और भी बढ़ गई थी। अभी लिस्ट का बहुत सारा सामान लिया जाना बाकी है और मैं घर चलो-घर चलो की रट लगाने लगी थी। अजीब भी लग रहा था, लेकिन एकदम से बाजार से उकता गई थी। शोर-शराबा, लाइट, भीड़, ट्रेफिक... बस मेरा सिर घूमने लग गया था। अजीब तो लग रहा था, ये बचपना, लेकिन... मैं बेबस थी, बेचैनी तीखी होने लगी थी। बहुत देर तक अपने संकोच में लिपटी रही थी। जब उस चौराहे के बंद सिग्नल के उस पार खड़े सेब के ठेले से सेब खऱीदने की बात आई थी... मन मसोस कर रह गई थी। फिर आगे चलकर मॉल के पार्किंग में गाड़ी लगी तो मन में हौल उठा था, अभी और देर से घर जाएँगे...। फिर एक आउटलेट से दूसरे आउटलेट के चक्कर... बस धैर्य जवाब दे चुका था। घर चलें, पहले बहुत विनम्रता से... जवाब भी उसी विनम्रता से मिला था। हाँ... बस चलते हैं।
फिर हर पाँच मिनट बाद – घर चलें... घर चलें की रट्ट... खीझ गया था वो। यार... छुट्टी वाले दिन तुम घर से निकलना नहीं चाहतीं, घर पहुँचकर निकलने में तुम्हें परेशानी है, ज्यादा देर बाजार में काम करें तो तुम्हें परेशानी है, ऐसे कैसे चलेगा? उसने अपने सारे धीरज को समेटकर सवाल किया था। उस धीरज से मेरे आँसू निकल आए थे। फिर शायद उसे थोड़ी सहानुभूति हुई थी। चलो, चलते हैं... बाकी की चीजें कल-वल खरीद लेंगे।

घर लौट तो आए थे, लेकिन एक बोझ-सा बना रहा था। खरीदी दीपावली के लिए हो रही थी, आज शनिवार था तो चाहे कितनी भी देर तक बाजार करते रहो चिंता की वजह नहीं थी, लेकिन मन का क्या करें। खाना खाने के बाद अपनी पसंद की नींबू चाय बनाई थी, बालकनी में पड़े स्टूल पर रखी और उसका हाथ पकड़कर ले आई थी, जो टीवी पर कोई बकवास-सी हॉलीवुड की फिल्म देख रहा था। मैंने अपराध-बोध से ग्रस्त थी, ट्राय टू अंडरस्टैंड मी... बॉलकनी से दूर क्षितिज पर झुकते आसमान को देखते हुए कहा था। उसकी आँखों में सवाल उभरा था... – क्या?

मैंने अपनी सारी अनुभूतियाँ समेटते हुए बात शुरू की थी - शाम होते-होते मुझे हमेशा ही घर की याद आने लगती है... यूँ लगता है कि बाहर निकलते हुए खुद का कोई हिस्सा रह जाता है घर में ही। और शाम होते-होते उसे मेरी और मुझे उसकी याद आने लगती हो... या... पता नहीं क्या... शायद पिछले जन्म में पंछी रही होऊँ... नहीं, मुझे यकीन नहीं अगले-पिछले जन्म में। इस पर यकीन करो तो बहुत सारे दूसरे यकीन भी करने पड़ते हैं, और फिर जिंदगी जैसे यकीनों का सिलसिला बन जाती है, फिर उन यकीनों से जुड़े सवालों से भी जूझना पड़ता है। ये तो बस यूँ ही... उतरता सूरज, ना जाने क्या-क्या लेकर आता है और खिंचता रहता है, हमेशा घर की ओर... अब दुनिया में है तो दुनियादार तो होना ही हुआ, सो हुए, घर-बाहर, दोस्त-रिश्तेदार, हारी-बीमारी, जन्म-मरण-परण... बहुत कुछ है जो घर से बाहर ले जाता है...लेकिन पंछी की मन लेकर जो पैदा हुए कि शाम होते घरोंदा ही याद आता रहा है। खुद को देखूँ तो उस सवाल का जवाब ही नहीं मिलता कि हम बाहर जाने के लिए शामों को ही क्यों चुनते हैं? जबकि घर से डूबते सूरज को देखो तो एक करूणा जागती है, वो भी हमारी ही तरह अपने घर लौट रहा है... बेचारा... दिन भर का थका-हारा, तपता-जलता, झुलसता-झुलसाता। जब कभी बाहर से घर लौटों तो महसूस होता है कि घर बहुत अनमना-अनमना-सा है, उसमें कोई जुंबिश नहीं है, कोई हरकत, कोई हरारत नहीं है, वो बिल्कुल ठंडा और बेजान है, निर्जीव...। अब बोलो भला घर कोई जीव है क्या? – मैं खुद ही सवाल करती जा रही थी और खुद ही जवाब भी दिए जा रही थी... वो बस मुझे बोलते देख रहा था। वो अक्सर कहता है कि तुम जब बोलती हो तो ऐसा लगता है कि शब्द झर रहे हैं... कई बार मैं बस उन्हें झरते देखता रहता हूँ, उनके अर्थों तक नहीं पहुँच पाता... मैंने अपनी बात जारी रखने के लिए थोड़ा वक्त लिया। जब उसने प्रश्नवाचक निगाहें छोड़ी तो फिर कहना शुरू किया - पता नहीं कितने बचपन से मुझे हमेशा ही ऐसा लगता रहा है कि घर को छोड़कर जाओ तो वो नाराज हो जाता है। बहुत देर तक वो संवाद नहीं करता, कहीं हाथ नहीं रखने देता है, अनमना-सा रहता है और थोड़े-थोड़े अंतराल में वो अपनी नाराजगी जाहिर करता रहता है। पता नहीं किसी और के साथ ऐसा होता है या नहीं, लेकिन मेरे साथ हमेशा ही घर का ऐसा ही रिश्ता रहा है। जब कभी बाहर से लौटकर घर आओ तो घर स्वागत नहीं करता है, अलगाया-सा बना रहता है, अजनबी और पराया-पराया-सा...बड़ी मुश्किल और मशक्कत करने के बाद वो सुलह करता है, इसीलिए बचपन से ही मुझे घर को नाराज करने में डर-सा लगता रहा है, शायद यही वजह रही हो कि मुझे घर से बाहर जाना पसंद नहीं आता... बल्कि यूँ कहूँ कि लौटकर आने पर घर का आहत होना पसंद नहीं है। इसीलिए दुनियादार के अतिरिक्त और कोई वजह नहीं होती कि घर को यूँ अकेले छोड़कर जाया जाए... अपनी छुट्टियों को उसके साथ शेयर करते रहना, उसके गुनगुनेपन में खुद को छोड़ देना, उससे संवाद करना और उसकी ऊष्मा में नहाना पसंद है, इसलिए छुट्टियों में घर से निकलना पसंद नहीं है। मुझे पता नहीं किसी को ये लगता हो या न लगता हो, लेकिन मेरे लिए घर महज भौतिक ईकाई नहीं है, ये मेरे वजूद का अभिन्न हिस्सा है, जो कहीं भी रहो, साथ मौजूद रहता है, किसी-न-किसी रूप में, न हो तो स्मृति के रूप में ही...जो बार-बार अपनी ओर खिंचती है।
मैं थक गई थी, क्योंकि वो चुप था। मैं भी चुप हो गई... लेकिन उसकी चुप्पी से अपराध-बोध और गहरा गया। चाय का आखिरी घूँट लिया और आसमान की तरफ देखते हुए सोचने लगी कितनी कृत्रिम रोशनी है कि तारों की टिमटिमाहट तक नजर नहीं आती। मैं शायद उसके कुछ कहने का इंतजार भी कर रही थी, कुछ विरोध करने सा कुछ। उसने कहा था – हाँ, ऐसा होता तो है, लेकिन मैंने कभी उसे बहुत गंभीर तरीके से नहीं लिया था... होता है ना अमूमन हम अपने भीतर के सूक्ष्म अहसासों के प्रति हमेशा ही लापरवाह और उदासीन बने रहते हैं, वैसा ही... तुम उस बारीक धागे को पकड़ लेती हो, क्योंकि तुम बेहद संवेदनशील हो, लेकिन यदि मैं भी वैसा ही हो जाऊँ तो सोचो जिंदगी कैसे चलेगी...?
हाँ, जिंदगी कैसे चलेगी... – अनायास ही कह गई थी, लेकिन सच ही था, आखिर दुनिया में रहने के भी तो कुछ कंपल्शंस है ना। उसने मुझे नजर से दुलराया था, मैं आश्वस्त होकर फिर डूब गई थी, खुद में... सुरक्षा की ऊष्मा जो मिली थी।





26/07/2012

भटक गए हैं, तो ठहर जाइए....


यूँ वो एक शांत-सी सुबह थी, चाहे इसकी रात उतनी शांत नहीं थी। गहरी नींद के बीच सोच की कोई सुई चुभी थी या फिर नींद दो-फाड़ हुई और घट्टी चलना शुरू हो गई थी, कुछ पता नहीं था। बस यूँ ही कोई अशांति थी, जो नींद को लगातार ठेल रही थी। फिर भी... रात हमेशा ही नींद की सहेली हुआ करती है, इसलिए ना जाने कैसे उसने चुपके से दबे पाँव नींद को भीतर दाखिल करवा दिया नींद आ गई थी।
गहरी उथल-पुथल, अस्तव्यस्तता औऱ अशांति के बीच शांति की चाह क्यों नहीं होगी...? ये कोई अनयूजवल ख़्वाहिश तो नहीं है... अब तक तो यही जाना था कि कुछ भी पाना लड़ कर ही संभव है, संघर्ष करने के बाद ही उपलब्धि हुआ करती है। शांति पाने के लिए संघर्ष किया, हर चीज को पाने के लिए जिस तरह करते रहे... उस दौर में सारी छटपटाहट शांति के लिए ही तो होगी। एकमात्र लक्ष्य शांति, किसी भी तरह, किसी भी कीमत पर, कैसे भी... शांति... तो क्या शांति के लिए भी संघर्ष करना होता है...! सालों से शांति के लिए संघर्ष चल रहा है, चलता रहेगा... आंतरिक और बाहरी दोनों ही दुनियाओं में ... इसके परिणाम में होती है... गहरी और गहरी होती अशांति, फिर भी क्या शांति को पा सके...? नहीं... संघर्ष चलता रहा, लेकिन शांति को हाथ न आना था, नहीं आई...। अब सोचो तो कितना बेतुका है... अशांति में शांति के लिए जद्दोजहद... शांति के लिए संघर्ष... संघर्ष से पायी जाने वाली शांति की ख़्वाहिश... कितना बेतुका, कितना अतार्किक, कितना सतही... क्या वाकई संघर्ष से शांति तक पहुँचा जा सकता है...! कितनी बेतुकी बात है... शांति के लिए संघर्ष.... संघर्ष से पायी गई शांति की ख्वाहिश...! करते रहे हैं, अब तक… उतनी बेतुकी कभी लगी ही नहीं। ये अलग बात है कि संघर्ष करते हुए भी कभी शांति नहीं पा सके हैं। ऐसी मनस्थिति में, बुद्धि को नहीं आत्मा को थपकियों की जरूरत थी, इसलिए... उद्वेलन नहीं, बहने की जरूरत है....।

वो ऊब भरे दिन का अंतिम सिरा ही रहा होगा, जब टीवी पर कुछ भी ऐसा नहीं आ रहा था जो अच्छा लगे, जिसमें रूचि जागे... अंतिम विकल्प के तौर पर डिस्कवरी लगा दिया था। कोई कार्यक्रम चल रहा था, शुरू हो चुका था। बड़ा एक्साइटिंग लग रहा था। ब्रेक में पता चला कार्यक्रम का नाम था आय शुड नॉट बी अलाइव...। उस दिन डायना अपने पति टॉम के साथ एडवेंचर टूर पर गई थीं। रेगिस्तान के बीचोंबीच पहले गाड़ी खराब हो जाती है, फिर गाड़ी से पानी औऱ खाना निकालने के दौरान गाड़ी में आग लग जाती है। फिर शुरू होती है रास्ता भटकने और बाहर निकलने की कोशिश... उसमें क्या-क्या मुश्किलें आईं औऱ उससे कैसे निबटा गया... वो सब। कार्यक्रम की सबसे अच्छी बात ये है कि ये उन्हीं की जुबानी होता है, जो उन परिस्थितियों से बाहर आ चुके होते हैं... एक बड़ी राहत... ।
केन, जॉर्डन, जिम, रॉजर, शैली, डैनियल, सारा, मिशेल.... हरेक.... जो कि एडवेंचर स्पोर्ट्स के शौकीन हैं उन्हें सबसे पहली हिदायत ये मिलती हैं कि यदि कहीं भटक गए तो जहाँ हैं, वहीं रूक जाएँ...।

आध्यात्मिक गुरु दीपक चोपड़ा भी यही कहते हैं कि जिस चीज की ख्वाहिश हो, उसे छोड़ दो... उसके पीछे मत पड़ो। कुल मिलाकर बात ये है कि भटकाव, अशांति, दुख में ठहर जाना... कुछ न कर पाने की स्थिति में डूब जाना... सबसे सहज उपाय है। इसी तरह की मनस्थिति में यूँ ही कहीं से ओशो का कहा हाथ लग गया था। मौजूं था, क्योंकि उन्होंने शांति की ही बात की थी... “यदि शांति चाहिए तो उसके पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ा जाए... उससे तो अशांति ही उपजेगी ना...।“ लगा बात तो बिल्कुल सही है... शांति पाने के लिए जद्दोजहद... क्या ऐसा करके पाई जा सकती है, शांति...? उन्होंने कहा है कि यदि मैं अशांति के लिए तैयार हूँ तो फिर मुझे कौन अशांत कर सकता है? दुख के लिए तैयार हूँ तो फिर कौन दुखी कर सकता है? जब तक हम सुखी होना चाहेंगे तो दुख ही भाग्य होगा।
मतलब जो भी है, उसमें डूब जाएँ..., छोड़ दें खुद को... बिना प्रतिरोध-विरोध और प्रयासों के... साधने की जरूरत है खुद को, लेकिन ये अनुभव सिद्ध है कि ये दलदल है, जितने हाथ-पैर मारे जाएँगें, उतने ही धँसते चले जाएँगे, तो प्रतिकूलताओं में खुद को छोड़ देना, प्रतिकूलताओं को स्वीकार कर लेना, उसके भागीदार हो जाना अपेक्षाकृत अच्छा विकल्प है, संघर्ष करने की तुलना में।
हो सकता है दुनियादारी के नियम अलग हों, शायद होते ही हैं... भौतिक दुनिया में तो संघर्ष करके ही उपलब्धि मिलती है, जितना कड़ा संघर्ष, जितना ज्यादा परिश्रम उतना ही अच्छा फल..., लेकिन आंतरिक दुनिया के नियम अलग है, यहाँ तो धँसना पड़ता है, डूबना पड़ता है, स्वीकारना पड़ता है ग्राह्य-त्याज्य... सबको, तभी वो मिल पाएगा जो इच्छित है। मुश्किल है, लेकिन स्थापित है... क्या करें!