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12/08/2011

बड़े नोट-सा दिन... रेजगारी-सी रात...!


दिन तो महीने के अंत में पगार की तरह फटाफट खर्च हो जाता। आखिर में हथेली में फुटकर.. रेजगारी की तरह रात बच जाती है। सब कुछ खर्च करने के बाद बची रेजगारी कितनी कीमती होती है ये तो खत्म हुई सेलैरी के बाद ही जाना जा सकता है। तो बची हुई रेजगारी को दाँत से पकड़ते हुए हर रात किफायत बरतने की जद्दोजहद के साथ आती और फिसल जाती है। बचाते-बचाते भी फिजूलखर्ची हो ही जाती थी।
उस रात दिन भर की दुनियादारी झड़ गई थी औऱ रात खालिस होकर उतरी थी। पूनम की तरफ बढ़ता चाँद अपनी रूठी चाँदनी से रात को रोशन करने की कोशिश ही कर रहा था कि न जाने कहाँ से भूरी-लाल बदली ने उसे अपनी आगोश में समेट लिया था। रात गाढ़ी हो चली थी, न चाहते हुए भी एक-एक कर सिक्के खर्च हुए जा रहे थे। अचानक जैसे आखिरी बचे चंद सिक्कों की कीमत का खयाल आ गया हो और मुट्ठी तो पूरी ताकत से भींच लिया...। बाहर बारिश जैसे सितार के तारों को छेड़ रही थी और अंदर रेडियो भी जैसे राग नॉस्टेल्जिया बजा रहा हो। घर आजा घिर आए, बदरा साँवरिया... यादों के कबाड़ से कुछ बहुत ही मजेदार चीजें निकल आईं जैसे - बचपन में मोटी रही लड़की का नाम भाइयों ने मोटा आलू कर दिया और उसकी शादी तक हम सब उसे मोटा आलू ही कहते रहे, इसी तरह मोटी-नाक वाले लड़के का नाम भजिया आलू रख दिया और बाद में दोनों के नामों को एक साथ इस्तेमाल करते हुए मोटा आलू और भजिया आलू कह-कह कर चिढ़ाते रहते... घिर-घिर आई बदरिया कारी... यादों की पिटारी में कई सारी कबाड़ है, कई तो ऐसी कि उसे हाथ लगाते ही कहीं अंदर काँटे गड़ने लगे। सुनाते-सुनाते ऐसी हँसी चली कि हँसते-हँसते आँसू ही आ गए... गुजरा जमाना बचपन का... बाँहें गर्दन के नीचे से गुजरी, प्यार और आश्वासन की थपकी दिमाग के सनसनाते हुए तंतुओं पर एक गति से पड़ने लगी, दिमाग थोड़ा-सा शिथिल हुआ... एक-एक कर सिक्के खत्म होते जा रहे हैं... रेडियो बजा रहा है शराबी-शराबी ये सावन का मौसम... बस यूँ ही-सा एक विचार आया... कितना भी सुख हो, कितना भी दुख... आखिर तो एक दिन सब खत्म होना ही है... एक दिन तो मर ही जाना है... तो फिर ये स्साली जिंदगी सही क्यों नहीं जाती है...?
सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ... कहते हैं कि कितनी भी जरूरत हो एक सिक्का हमेशा बचा कर रखना चाहिए, उसे बरकती सिक्का कहते हैं, फिर वही रात है, फिर वही रात है ख्वाब की... तो एक दिन सब कुछ के खत्म हो जाने के विचार के बाद भी उस आखिरी सिक्के को हथेली में मुट्ठी भींच कर बचा लिया कि कल फिर से नई शुरुआत होगी... बरकत बनी रहेगी...।

20/07/2011

काश ऐसा हो पाता....!


साढे़ सात बजते न बजते पूरा घर खाली हो जाता है... सब अपने-अपने काम पर निकल जाते हैं और घर में रह जाती है सुगंधा अकेले...। पहाड़ जैसा दिन सामने पड़ा हुआ है और करने के लिए कुछ होता ही नहीं है। घर फिर से 3 बजे गुलजार होगा, तब तक उसे कभी टीवी, तो कभी अखबार-पत्रिकाओं, मोबाइल फोन या फिर किताबों से सिर फोड़ना होता है। तो सुबह साढ़े सात के बाद वह फिर से बिस्तर में घुस जाती है। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। कितनी ही कोशिश करे वो दिमाग की चर्खी को चलने से नहीं रोक पाती। कभी अपने खालीपन का कीड़ा, कभी पिता का स्वास्थ्य तो कभी माँ की चिंता... कभी भाई की चिंता, कभी बच्चों की पढ़ाई, पति का स्वास्थ्य तो कभी यूँ ही खुद का भविष्य...(कभी-कभी वो खुद से सवाल करने लगती है कि क्या जिंदगी यही है, इसी तरह से जाया होने के लिए... या इसका कोई मतलब है, लक्ष्य है....? उसका पति भी उसके इस तरह के सवालों से तंग आ चुका है, लेकिन वो क्या करे!) तो कभी कुछ और... कुछ-न-कुछ तो लगा ही रहता है उसकी जान को...। समझाने को तो वो किसी को भी ये समझा सकती है कि चिंता किसी भी समस्या का हल नहीं है, लेकिन खुद को समझा पाने जितनी समझ पता नहीं कैसे उसमें अभी तक नहीं आ पाई है। तो रात भर एक खलिश उसके नींद के उपर एक पलती झिल्ली सी पड़ी रही और उसकी नींद उसके नीचे कुनमुनाती रही। सुबह का अपना कर्म पूरा कर उसने खिड़कियों के खुले पर्दे खींच दिए। पंखे की स्पीड कम कर दी और चादर तानकर सोने की कोशिश करने लगी। वो झिल्ली अभी भी जहन पर पड़ी हुई है... क्या करे उसका...?
बारिश का मौसम भी कुछ अजीब होता है, पंखा चले तो ठंडा लगता है और बंद कर दें तो गर्मी लगने लगती है, तो जब सुगंधा को चादर में ठंड़ा लगने लगा तो उसने अपने सिर तक कंबल खींच लिया। कमरे में वैसे ही अँधेरा था, सिर तक कंबल खींच लेने से अंदर का अँधेरा औऱ गाढ़ा हो गया, तो अँधेरे और कंबल के गुनगुनेपन का आश्वासन पाकर नींद झिल्ली तोड़कर उपर आ गई। थोड़ी देर के लिए दुनिया और दुनिया की चिंताएँ कंबल के बाहर ही रह गई और सुगंधा सो गई। हल्की झपकी के बाद जब उसने कंबल हटाने के लिए हाथ उठाया तो उसे एक अजीब सी दहशत हुई... उसे लगा जैसे वो अंदर बहुत सुरक्षित है और जैसे ही उसने कंबल हटाया बाहर खड़ी दुनिया उसे झपट लेगी... और वो वहीं साँस रोके लेटी रही..., लेकिन जल्दी ही उसका ये भ्रम भी टूट गया। कलाबाई ने घंटी बजाई, तो उसकी आवाज कंबल को छेदते हुए आ गई... सुगंधा ने उठकर दरवाजा खोला। कंबल को घड़ी करने के लिए हाथ बढ़ाते हुए उसने गहरी साँस ली... – काश ऐसा हो पाता कि कबंल के नीचे का अँधेरा, उसे दुनियादारी से मुक्त और दूर कर पाता...। उसने बहुत एहतियात से कंबल को उठाया जैसे ये उसका सुरक्षा घेरा हो और वो उसे छूकर आश्वास्त होना चाहती हो...।

17/07/2011

....मुझको सन्नाटा सदा लगता है!


वो नहीं जानती है कि उसकी आँखें मुझे उसके सारे हाल की चुगली कर देती है। उसे तो बस ये भ्रम है उसके अंदर का तूफान बे-आवाज आता है और गुजर जाता है, किसी को उसकी खबर नहीं लगती है। मैं भी उसके भ्रम को भ्रम ही रहने देता हूँ। उस दिन भी हम दोनों एक रिसर्च पेपर के लिए नोट्स ले रहे थे, और उसके अनजाने ही उसकी बेचैन तरंगें मुझे लगातार झुलसा रही थी... जला रही थी। बार-बार उसका गहरी साँस लेना... मुझे भी बेचैन कर रहा था, लेकिन पता नहीं कैसी जिद्द में था कि बस... पूछा ही नहीं। ये जानते हुए भी कि वो खुद अपनी बेचैनी का पता कभी नहीं देगी...। हम दोनों के बीच बहुत बातें हुआ करती है, लेकिन बहुत कुछ ऐसा भी होता है, जो अनकहा ही रह जाता है। पता नहीं उसमें से भी कितना हम दोनों समझ पाते हैं और कितना छूट जाता है!
वो एक प्रोजेक्ट से सिलसिले में बाहर जाने वाली थी। उसने कुछ कहा नहीं था, मैंने कुछ पूछा नहीं... सुबह-सुबह जब मैं उसके घर पहुँचा तो वे अपना सामान निकालकर ताला लगा रही थी। मुझे देखकर वह चौंकी नहीं... ऐसे जैसे... वो तो जानती ही थी कि मैं पहुँचूगाँ ही...। बिना कुछ कहे मैंने उसका एयरबेग उठा लिया। वो भी कुछ नहीं बोली और गाड़ी में बैठ गई। वो कहीं और थी... गियर बदलने की मजबूरी के बाद भी... पता नहीं कैसे मैनेज कर लेता हूँ और उसके हाथ पर अपना हाथ रख देता हूँ। वो सूनी आँखों से देखती है, कुछ नमी तैरती है और इशारे से सामने देखने की ताकीद करते हुए फिर कहीं गुम हो जाती है। गाड़ी के जाते ही मुझे लगने लगता है जैसे मैं बहुत थक गया हूँ और अभी यहीं आराम करना चाहता हूँ। खाली स्टेशन पर हाल ही में खाली हुई बेंच पर जाकर बैठ जाता हूँ।

उन तीनों दिन में लगभग हर दिन उससे बात हुई थी, लेकिन कल दिनभर कुछ ऐसा हुआ कि कुछ मैं बिज़ी रहा, कुछ वो और कुछ नेटवर्क... तो बात हो ही नहीं पाई। आज उसे लौटना है।
सुबह से ही जैसे मुझे किसी आहट का इंतजार है। आज मेरी छुट्टी है और दिन भर सामने पसरा है एक लंबे-चौड़े मैदान की तरह... अब मुझे उससे खेलने की स्कील जुटानी है। मोबाइल बजा तो कई बार... लेकिन मेरी चेतना जैसे किसी खास आवाज की राह देख रही है। शाम... जब आधी नींद और पूरी खुमारी के बाद जागा तो आखिर वो आहट सुनाई दी।
कहाँ हो...?
घर पर ही, कब लौटी? – जानते हुए एक बेकार-सा सवाल।
मैं आ रही हूँ। - सारी औपचारिकता को दरकिनार कर धरती-सी उदारता के साथ उसने सूचना दी।

दिन भर तेज धूप रही, लेकिन शाम घिरते ही ना जाने कैसे आसमान पर बादल जमा होने लगे। उसके आने की खुशी में मैंने घर की हर चीज को छूकर देखा... पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लगा कि मेरी ही तरह मेरे घर को भी उसकी आमद का इंतजार है। उसकी ही गिफ्ट की हुई बाँसुरी की सीडी लगाई... और आवाज को बहुत धीमा कर दिया। बॉलकनी में दो कुर्सियाँ और टेबल लगाई, क्योंकि वो जब भी आती है, यहीं आकर बैठती है, बिल्डिंग के पिछले हिस्से में कॉलोनी के बगीचे के ठीक उपर ही है मेरी बॉलकनी...। घर के सारे दरवाजे-खिड़की और पर्दे खोल दिए। वो जब आई तब तक ठंडी हवाएँ चलने लगी थी। उसने पर्स सोफे पर पटका और सीधे बॉलकनी की कुर्सी में जाकर धँस गई। वो अपने टूर के बारे में बता रही थी, मैं उसे सुन रहा था... देख रहा था। अचानक उसकी बेचैन साँस ने मुझे फिर से छुआ, एक सिहरन हुई... वो उठकर अंदर आ गई...। उसने शिकायत-सी की - कितना शोर है!
पार्क में खेलते बच्चों की चिल्लपों के साथ ही आसपास के और भी लोग लगता है कि अच्छे मौसम को लूटने के लिए पार्क में जमा हो गए थे और उन सबकी सम्मिलित आवाजें... नीचे से गुजरते वाहनों का शोर... मुझे भी महसूस हुआ कि वाकई बहुत शोर हो रहा है। वो ड्राइंग रूम के सोफे पर आकर बैठ गई। सोफे की पुश्त पर सिर रखा – ये लाइट और ये म्यूजिक सिस्टम बंद कर सकते हो? – उसने जैसे गुज़ारिश की।
यार... आजकल मैं लाइट और साउंड को लेकर बहुत संवेदनशील हो चली हूँ। मुझे लगता है कितना शोर है आसपास... कितनी आवाजें आ रही है। मुझे रोशनी बेचैन करने लगी है। टीवी, रेडियो, वाहनों यहाँ तक कि पंखे के चलने की आवाज... और कभी-कभी तो घड़ी की सुईयों के सरकने की आवाज तक मुझे बेचैन किए देती है। - उसने अपनी हथेलियाँ खोलकर उँगलियाँ अपने बालों में कस ली। बाहर तेज बारिश होने लगी तो पार्क पूरा खाली हो गया। एक तरह से सारी कृत्रिम आवाजें बंद हो चली थी। वो उठकर बॉलकनी में आ गई।
मैंने उससे पूछा - चाय पिओगी...?
हाँ, नींबू है...?
नींबू चाय पीना है? – मुझे याद आया... उसे पसंद है। उसने कहा कुछ नहीं... बस गर्दन हिलाकर हाँ कर दी।
यूँ भी शाम उतर रही थी और फिर घने बादलों ने रोशनी और भी कम कर दी थी। धीरे-धीरे अँधेरा गाढ़ा होने लगा था। मैं किचन में चाय बनाने चला आया। चाय लेकर लौटा तो लाइट जा चुकी थी। बारिश बहुत तेज होने लगी थी... अब सिर्फ बादलों के बरसने की आवाज के अतिरिक्त और कोई आवाज शेष नहीं थी। स्ट्रीट लाइट की हल्की रोशनी में उसने चाय का गिलास उठा लिया था। उसने बहुत मायूसी से कहा – शोर है दिल में कुछ इतना/ मुझको सन्नाटा सदा (आवाज़) लगता है। बिजली की चमक में उजाले में मैं उसकी आँखों में समंदर उतरते देखता हूँ और खुद को उसमें डूबते पाता हूँ। एक गहरी साँस आती है, मेरा समंदर तो ये भी नहीं जानता है कि कोई उसके खारे पानी में घुट कर मर रहा है।
चाय का सिप लेकर गिलास को दोनों हाथों में थामते हुए वे कहती है – नाइस टी...।

03/07/2011

संघर्ष खुद से....!


मैंने उसे बहुत गहरी नींद से जगाया था। हड़बड़ा कर उठी थी वो... मैंने उसे आदेश-सा दिया, मेरे साथ चल, मुझे तुझसे कुछ बात करनी है...। मैं समझती हूँ कि वो बहुत गहरी नींद में थी, लेकिन मैंने उसकी कलाई को बहुत सख्ती से पकड़ लिया, और घसीटती हुई ही उसे ले जाने लगी थी। रात गहरी थी, सन्नाटा घना... वो अनमनी-सी, समझ नहीं पा रही थी कि मैं उसके साथ ऐसा क्यों कर रही हूँ!
लग तो मुझे भी रहा था कि मैं ये क्या कर रही हूँ? क्यों? का जवाब था मेरे पास, क्योंकि एक खऱाश, खलिश, घुटन मुझे लगातार महसूस हो रही थी और मुझे लगने लगा था कि बस उसकी वजह वो ही है। हम चलते चले जा रहे थे। एकाएक लगा कि एक नदी उग आई है, (तब मेरा विश्वास यकीन में बदल गया कि, मैं सपना देख रही हूँ, क्योंकि नदियाँ क्या ऐसे उगा करती है? सदियों तक पानी बहता है, तब जाकर नदी का रूप लेता है। खैर).... उछलती-कूदती शोर मचाती नदी रात के अँधेरे में थोड़ी और शैतान लगने लगी है। किनारे पर रखे पत्थरों पर हम दोनों ही बैठ गई। मुझे पता नहीं चला कि कब मेरी उँगलियों की पकड़ ढीली हो गई। मेरे चेहरे की सख्ती थोड़ी ढल गई। उसने अब मेरे कंधे पर अपना हाथ रखा – हाँ, बोल...।
मेरी नजर सीधी-काट देने वाली – तू जानती नहीं है क्या?
क्या? – उसका बहुत मासूम-सा सवाल
तू नहीं जानती है कि मुझे कितनी घुटन हो रही है, खुद को मैं कितना उपेक्षित होते हुए देख रही हूँ...! – मैंने तल्ख होकर उससे पूछा था।
उसके चेहरे पर बहुत भोलापन उतर आया... – नहीं, तू क्यों घुटती है, औऱ तेरी उपेक्षा कौन कर सकता है?
तेरी वजह से हो रहा है ये सब... – मैने थोड़ा नर्म होकर उससे कहा। मेरे अंदर कुछ बेतरह सुलग रहा था। - तेरे दिखने ने मेरे होने को खत्म कर दिया है। ये मत समझना कि मैं तुझसे जलती हूँ... – मैंने तीखी बात को अंदर ही ठेल दिया।
बस तू मुझे मुक्त कर दें... मुझे घुटन होने लगी है। ये भौतिकता मुझ से नहीं सधती है। लगातार सतर्कता... जैसे सारी ऊर्जा एक ही जगह जाया हो रही है। - रोकते-रोकते तक कड़वाहट उभर ही आई।
जाया हो रही है? - उसने आहत भाव से पूछा।
हाँ, सारी चेतना जैसे एक ही जगह बह रही है, तेज प्रवाह से... भौतिक होने पर... दैहिक होने पर... मुझे उससे निजात चाहिए। - मैंने जैसे फैसला सुना दिया।
मेरे करने से कहाँ कुछ बदलता है? - उसने अपनी बेबसी जाहिर की। - कितना भी करो, भौतिकता से कहाँ निजात है। कौन हमारे होने तक पहुँच पाता है, या पहुँचना चाहता है! किसके पास है इतनी फुर्सत...? - ना चाहते हुए भी उसकी पीड़ा छलक पड़ी थी।
पता नहीं ये पूरे चाँद की रात का असर है या यूँ ही-सा एक जुनून सवार था, मैं किसी भी कीमत पर हार मानने को राजी नहीं थी। कुछ चाहना अपना भी होता है मेरी जान... – ताना मारा था, मैंने।
तूने कब चाही मुक्ति... तू भी इसमें धँसे रहना चाहती है। आखिर तो किसे पसंद है, हर दिन, हर वक्त की जलन, चुभन, उबलन और बेचैनी...। बाहर सबकुछ खूबसूरत होना बहुत बड़ी राहत है, ये तो तू भी जानती ही है ना...! – उसे घायल करने का कोई मौका नहीं छोड़ रही हूँ। कभी-कभी होता है ना एक तरह का पागलपन सवार... बस ये कुछ ऐसा ही था, जब हम जानते हैं कि ये सरासर पालगपन है, फिर भी उसे जारी रखे रहते हैं, क्यों... ये तो सोचते ही नहीं।
उसकी बड़ी-बड़ी आँखे डबडबाने लगी थी, हालाँकि मेरे अंदर कुछ नर्मा रहा था फिर भी एकदम से नहीं। - जब सब कुछ अच्छा लगे तो फिर क्या ठीक करना और क्यों ठीक करना...?
वो एक तरह से मिन्नत ही कर रही थी – देख मैं भी तो तेरे साथ ही लगी हुई हूँ..। तुझसे अलग कहाँ हो पा रही हूँ? जो जैसा तू चाहती है, वैसा ही मैं भी तो कर रही हूँ। तू बता और क्या करूँ, जो तेरी घुटन कम हो..।
वो उठकर मेरे करीब आ गई। मेरी गोद में सिर रख दिया तो मेरे अंदर कुछ बहुत तेजी से पिघलने लगा। मेरी ऊँगलियाँ उसके बालों में घूमने लगी। मैंने उससे वादा लिया – तू हमेशा मेरे ही साथ रहेगी ना...! मुझे कभी अकेला तो नहीं छोड़ेगी ना...! तू जब बाहर हो जाती है ना, तो मैं बहुत अकेली पड़ जाती हूँ। मैं तेरा भीतर हूँ, चाहे जलता हुआ, उबलता हुआ हूँ, लेकिन तेरे होने का साक्षी और साथी भी... तू जानती है ना...!
उसने सिर उठाया, आँखों में अब भी आँसू थे। सिर हिलाकर हामी की और मुझे कमर से कस लिया। कहीं मेरी आँखें भी भीग गई थी। आँसू को ढ़लकने से बचाने के लिए सिर उठाया तो चाँद का अक्स नदी में नजर आया। यूँ ही एक विचार आया कि चाँद तक खुद को निहारता है, तो फिर इंसान की तो बिसात ही क्या है?

03/02/2011

... और नहीं बच पाए मानसिक प्रदूषण से भी


जैसे हकीकत में दुख और निराशा होती है, वैसे ही काल्पनिक दुख और निराशा भी होती है। अब जैसे एक दुख ये भी है कि आज से लगभग 2300-2400 साल पहले स्थापित प्लेटो की अकादमी में हमारा एडमिशन नहीं हो पाता क्योंकि हमारा गणित में हाथ तंग है। वैसे तो वहाँ एडमिशन के लिए संगीत (इसमें साहित्य भी शामिल है) या दर्शन या गणित में से किसी एक विषय की समझ होना अनिवार्य शर्त थी, औऱ संगीत, साहित्य के साथ-साथ दर्शन भी थोड़ा बहुत तो समझ में आता ही है, लेकिन गणित... वो तो दुखती रग है। तो हुआ ना ये काल्पनिक दुख... फिर सिर्फ गणित में ही क्यों, विज्ञान में भी तो हाथ तंग है। तो जब प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे, उसी दौरान सामान्य गणित और सामान्य विज्ञान को पढ़ने की मजबूरी सामने आई थी। उन्हीं दिनों चुनाव, संसद, संविधान, सिद्धांत, इज्म से इतर कुछ पढ़ा गया था, जैसे पर्यावरण और पर्यावरण प्रदूषण... विज्ञान के अनुसार मोटे तौर पर प्रदूषण के चार प्रकार वायु, ध्वनि, मिट्टी और पानी है, ये सब प्राकृतिक जीवन के उलट जीने का परिणाम है, लेकिन पिछले कई दिनों की विचार और अहसास प्रक्रिया से प्रदूषण का एक और प्रकार अन्वेषित किया है, जिसका संबंध अमूर्त विज्ञान से नहीं, बल्कि मनोविज्ञान से है, वो है मानसिक प्रदूषण...।
कहने को एक बार कह गए थे कि – अजीब दौर है ये, यहाँ अच्छाई अविश्वसनीय हो चली है। पता नहीं कैसे ये गफ़लत हो गई थी कि ये दुनिया का सच है, यहाँ अभी ऐसा दौर नहीं आया है, लेकिन जैसा कि होता है, परिवर्तन एक बहुत सुक्ष्म प्रक्रिया है और ये तब महसूस होती है, जब इसके परिणाम आने लगते हैं।
एक प्रकाशक एक विशेष कालखंड में हिंदी साहित्य की प्रकाशित हर विधा की किताबों की समीक्षा की एक पत्रिका निकाल रहे हैं। साहित्य में रूचि होने की वजह से उस पत्रिका की समीक्षा की जिम्मेदारी मिली। मसला ये है कि साहित्यिक समीक्षा के विचार से शुरू से ही असहमति रही है। लगता है, जैसे समीक्षा से किताब के रस की हत्या कर दी जाती है। किताब समीक्षक को कैसी लगी, ये एक अलग मसला है, लेकिन उसकी शैली, कथ्य, भाषा और शिल्प का पोस्टमार्टम यदि गुरुगंभीर साहित्यिक समीक्षक औऱ आलोचक करते हैं तो समीक्षा पढ़ने के बाद अक्सर यूँ लगता है कि इससे बेहतर होता, सीधे किताब ही पढ़ ली जाती। ये ठीक वैसा है जैसे किसी बहुत खूबसूरत गज़ल का विजुवलाइजेशन कर दिया जाए। सुनकर की जा सकने वाली कल्पनाओं की हत्या...(हो सकता है, इसे पुराना विचार करार दिया जाए।) मतलब रेडिमेड कल्पनाएँ। मतलब हमारे अंदर अँकुरित होने वाली कोंपलों पर पाला पड़ गया हो। हाँ पत्रिका की समीक्षा एक अखबारी कर्म है और इसमें ज्यादातर सूचनाएँ ही प्रेषित की जाती है, पोस्टमार्टम जैसी समीक्षा का गंभीर कर्म नहीं किया जाता है तो अखबार के शेड्यूल को साधते हुए अपने काम पर लग गए। जब समीक्षा के लिए पत्रिका को पढ़ना शुरू किया तो ये देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि पत्रिका में सिर्फ अपने ही प्रकाशन-गृह से प्रकाशित किताबों को शामिल नहीं किया गया है, बल्कि हिंदी के लगभग सारे बड़े प्रकाशन-गृहों से प्रकाशित किताबों की समीक्षा को शामिल किया गया है। एकाएक प्रश्न कौंधा... – इससे पत्रिका के प्रकाशक को क्या फायदा है?
इस एक प्रश्न ने हमें ये अहसास दिलाया कि चाहे खुद को बचाने की आपने कितनी ही कोशिशें की हो, लेकिन मानसिक प्रदूषण से फिर भी बचाव नहीं हो पाया है।
मतलब बाजार ने हमें ऐसी नजर दे ही दी है कि बिना नफे-नुकसान के किसी के काम को देख ही नहीं सकते हैं। और जो बहुत सहज मानवीय चीजें हैं, उसे जुनून कह कर सामान्य जीवन से खारिज करने लगे। तो हमें लगा कि दूसरे और तरह के प्रदूषणों की तरह मानसिक प्रदूषण भी सामयिक परिवर्तनों का परिणाम हैं, लेकिन प्रदूषण तो आखिरकार प्रदूषण ही है ना... इसके दुष्परिणाम तो होने ही हुए। तो अब होने ये लगा है कि यदि किसी को प्रचलित इम्प्रेशन से उलट कुछ करता पाते हैं तो अंदर कहीं कुछ भीग जाता है, लेकिन... तुरंत मानसिक प्रदूषण का प्रभाव लहरा जाता है, और उसके कर्म से आगे नीयत के छिलके निकाले जाने लगते हैं... इससे बुरा क्या...? सहज चीजों के प्रति अविश्वास और सकारात्मक ऊर्जा पर अविश्वास का हावी हो जाना... जैसे हम पृथ्वी को वायु और ध्वनि प्रदूषण से नहीं बचा पाए, उसी तरह से हम खुद को मानसिक प्रदूषण से नहीं बचा पाए... यही तो है बाजार का प्रभाव...।

26/01/2011

ये दुनिया ऊँटपटाँगा....


हम अपने पड़ोसी के कुत्तों और रेडियो दोनों से परेशान रहते हैं... दिन में जोर-जोर से रेडियो बजता है और रात में जोर-जोर से कुत्ते भौंकते हैं। मतलब दिन-रात की परेशानी... ड्रायवर इसलिए परेशान है कि वो गाड़ी साफ करता है और कुत्ते आसपास मँडराते हैं और गंदा कर देते हैं। वो थोड़ा है भी विशेष... महीने के बीच में ही घोषणा कर दी कि – बस अगले महीने और आपके साथ काम करूँगा... फिर मैं आपके साथ काम नहीं कर पाऊँगा।
लगा कि एकाएक बड़ी मुसीबत में आ फँसे। पूछा – क्यों भाई?
जवाब मिला – कुछ खास नहीं बस अब मैं ड्रायवरी करना ही नहीं चाहता।
एक बार और कुरेदा... तब भी जवाब वही मिला। हमारा ईगो भी ऐंठ में आ गया। ठीक है, डेढ़ महीना है, हम ही सीख लेंगे गाड़ी... थोड़ा ठंडा हुआ तो... ठीक है जैसे पहले जाते थे, वैसे ही जाएँगें, ऊँ..ह..ह शहर में ड्रायवरों की कोई कमी तो है नहीं...एक ढूँढों तो हजार मिलेंगे... साहब हो रहे हैं ड्रायवरी नहीं करेंगे तो क्या करेंगे... पढ़े लिखे हैं क्या कि कहीं और कोई और काम मिल जाएँगें... आदि-आदि...। शाम को घर पहुँचकर जो खबर सुनाई तो एक बार फिर धमक सुनाई दी। फिर वही सवाल, वही जवाब... मान लिया, भाई छोड़ेगा ही। तीन-चार दिन बाद जब हमारे ईगो की ऐंठन कम हुई तो फिर प्यार से फुसला कर पूछा। जवाब ने जैसे आसमान से गिरा दिया।
जवाब मिला – मैं छुट्टी नहीं ले पाता हूँ।
लेकिन हमने तो कभी आपको छुट्टी के लिए इंकार नहीं किया।
हाँ, लेकिन आप छुट्टी के पैसे नहीं काटते हैं ना, तो मैं छुट्टी नहीं ले पाता हूँ। राजेश और मैंने एक-दूसरे को चौंक कर देखा... इसका क्या? याद आया पिछले चार महीनों में अपनी बीमारी और पिता की मौत पर वह 15-15 दिनों की छुट्टी ले चुका था, उसे छुट्टी के पैसे देने के पीछे भी हमारी सोच कोई मानवतावादी या फिर सहानुभूतिपूर्ण नहीं थी। बस जो हमें मिलता है, हम उसे आगे बढ़ा रहे थे। मतलब हमारे अपने वर्क प्लेस से हमें भी साल भर में कुछ निश्चित छुट्टियाँ मिलती है, तो हमें लगा कि उसे भी कुछ तो मिलना ही चाहिए... बस... लेकिन... खैर...। प्रस्ताव राजेश की ओर से आया – ठीक है ऐसा करते हैं, जब भी आप छुट्टी लोगे हम उसका पैसा नहीं देंगे और सन-डे को यदि हमने बुलाया तो हम उसका पैसा देंगे, चलेगा...?
वो खुश... अब मैं काम कर सकता हूँ। चलिए एक बड़ी समस्या हल हुई। इस बीच गाड़ी चलाना सीख लेने की उसकी रट कम नहीं हुई और आखिरकार चलाना सीख ली... अब ये बात अलग है कि उसकी अनुपस्थिति में सड़क पर गाड़ी दौड़ाने का साहस अभी तक नहीं आ पाया है, हाँ उसके होते ही आत्मविश्वास आसमान पर होता है।
जनवरी गुजर रहा है। संस्थान में हर कोई कुछ-न-कुछ सूँघने की कोशिश कर रहा है। छोटी-से-छोटी घटना का एक ही निष्कर्ष निकलता है अपरेजल... क्यों नहीं भई आखिर अप्रैल जो आ रहा है।
घर से निकले ही थे कि साथी का फोन आया पिछले साल हुए अपरेजल को लेकर बहुत सारा असंतोष उँडेलने और इस बार भी यदि ठीक नहीं हुआ तो संस्थान को छोड़ देने की परोक्ष चेतावनी देते हुए उन्होंने ये जानने चाहा कि – छाप-तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाय के... अमीर खुसरो का ही है ना! मैं हिंदी के विकास पर एक राइट-अप तैयार कर रहा था।
हाँ, अमीर खुसरो का ही लिखा हुआ है।
ओके, थैंक्य यू... फोन काट दिया गया।
सिग्नल पर गाड़ी रूकी तो लगा कि ड्रायवर कुछ कहना चाह रहा है। उसने एक बार फिर झटका दिया – भाभीजी आपको और सरजी को ये लगता होगा ना कि मुझे बहुत कम समय के काम के लिए बहुत ज्यादा पैसा दिया जा रहा है?
जवाब ही नहीं सूझा... क्या दें, हड़बड़ाए... – अरे नहीं, हमारे पास काम ही इतना है क्या करें?
इसीलिए तो मैं चाह रहा था कि आप चलाना सीख लें, जरा-सा ही तो चलाना है। क्या है कि मुझे बड़ी शर्म आती है कि मैं इतना-सा काम करता हूँ और इतना पैसा लेता हूँ।
हम भी तब तक संभल गए – बल्कि तो यदि किसी दिन हम आपको दिन भर के लिए बुलाते हैं तो हमें लगता है कि आज दिन भर आपको परेशान किया।
जवाब मिला – उल्टा मुझे तो खुशी होती है, कि चलो आज के लिए आप जो देंगे उतना काम तो कम-से-कम आज मैंने किया...।
ये हैं हमारे ड्रायवर श्रीमान गोपाल कुशवाह... और एक ये हैं
नोटिस बोर्ड पर लगे नए नोटिस को पढ़ने के लिए लगातार लोगों का आना-जाना लगा हुआ था। थोड़ी भीड़ छँटी तो हम भी वहाँ पहुँचे। संस्थान के कर्मचारियों के लिए प्रबंधन ने निशुल्क योग प्रशिक्षण क्लासेस की व्यवस्था की है। ये ऐच्छिक है, आप चाहे तो काम के घंटों में से ही समय निकाल कर सीख सकते हैं। इस पर हमारे साथी की टिप्पणी थी – ये भी अच्छा है। योग सीख लो, अपनी शारीरिक क्षमता बढ़ाओ और फिर गधों की तरह यहाँ का काम करते जाओ...।
हमारी समझ में ये नहीं आया कि इस पर हँसे कि रोएँ....पड़ोसी ने फिर से ऊँची आवाज में अपना रेडियो चालू कर दिया है... इस बार कैलाश खैर गा रहे हैं – ये दुनिया ऊँटपटाँगा, कित्थे हत्थ तो कित्थे टाँगा..... चक दे फट्टे...
हमें लगा सही है... नहीं क्या?

28/11/2010

यहाँ सादगी अश्लील शब्द और भूख गैर-जरूरी मसला है


शादियों का सिलसिला शुरू हो चला है और अपनी बहुत सीमित दुनिया में भी लोग ही बसते हैं तो उनके यहाँ होने वाले शादी-ब्याह में हम भी आमंत्रित होते हैं... फिर मजबूरी ही सही, निभानी तो है...। हर बार किसी औपचारिक सामाजिक आयोजन में जाने से पहले तीखी चिढ़ के साथ सवाल उठता है कि लोग ऐसे आयोजन करते क्यों हैं? और चलो करें... लेकिन हमें क्यों बुलाते हैं? इस तरह के आयोजनों में जाने से पहले की मानसिक ऊहापोह और अलमारी के रिजर्व हिस्से से निकली कीमती साड़ी की तरह की कीमती कृत्रिमता का बोझ चाहे कुछ घंटे ही सही, सहना तो होता ही है ना... ! बड़ी मुश्किल से आती शनिवार की शाम के होम होने की खबर तो पहले सी ही थी, उस पर हुई बारिश ने शाम के बेकार हो जाने की कसक को दोगुना कर दिया। शहर के सुदूर कोने में कम-से-कम 5 एकड़ में फैले उस मैरेज गार्डन तक पहुँचने के दौरान कितनी बार खूबसूरत शाम के यूँ जाया हो जाने की हूक उठी होगी, उसका कोई हिसाब नहीं था।
उस शादी की भव्यता का अहसास बाहर ही गाड़ियों की पार्किंग के दौरान हो रही अफरातफरी से लगाया जा चुका था। गार्डन में हल्की फुहारों से नम हुई कारपेट लॉन में पैर धँस रहे थे। गार्डन का आधा ही हिस्सा यूज हो रहा था और प्रवेश-द्वार से स्टेज ऐसा दिख रहा था, जैसे बहुत दूर कोई कठपुतली का खेल चल रहा हो।
शुरूआती औपचारिकता के बाद हमने देखने-विचारने के लिए एक कुर्सी पकड़ ली थी... आते-जाते जूस, पंच और चाय का आनंद उठाते लकदक कपड़ों, गहनों में घुमते-फिरते लोगों को देखते रहे। करीब 60 फुट चौड़े स्टेज पर दुल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद देने के लिए कतार में खड़े लोगों को देखकर हँसी आई थी... यही शायद एकमात्र ऐसी जगह है जहाँ देने वाले कतार बनाकर खड़े हों... वो भी आशीर्वाद और बधाई जैसी अमूल्य चीज... यही दुनिया है...।
खाने में देशी-विदेशी सभी तरह के व्यंजनों के स्टॉल थे... कहीं पहुँच पाए, कहीं नहीं... पता नहीं ये थकान होती है, ऊब या फिर खाना खाने का असुविधाजनक तरीका... घर पहुँचकर जब दूध गर्म करती हूँ... हर बार सुनती हूँ कि – ‘शादियों में बैसाखीनंदन हो जाती हो...।’ बादाम का हलवा ले तो लिया, लेकिन उसकी सतह पर तैरते घी को देखकर दो चम्मच ही खाकर उसे डस्टबिन में डाल दिया... फिर अपराध बोध से भर गए... यहाँ हर कोई हमारी ही तरह हरेक नई चीज को चखने के लोभ में क्या ऐसा ही नहीं कर रहा होगा? तो क्या देश की 38 प्रतिशत आबादी की भूख केवल मीडिया की खबर है...? यहाँ देखकर तो ऐसा कतई नहीं लगता कि इस देश में भूख कोई मसला है, प्रश्न है...।
विधायक, सांसद और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ-साथ शहर के बड़े व्यापारी, उद्योगपतियों का आना-जाना चल रहा था, कीमती सूट-शेरवानी में मर्द और महँगी चौंधियाती साड़ियों और सोने-हीरे के जेवरों में सजी महिलाओं के देखकर यूँ ही एक विचार आया... कि जिस तरह नेता रैली, बंद, धरने, हड़ताल और जुलूस के माध्यम से अपना शक्ति-प्रदर्शन करते हैं, उसी तरह अमीर, शादियों में अपना शक्ति प्रदर्शन करते हैं... किसके यहाँ कौन वीआईपी गेस्ट आए... कितने स्टॉल थे, कितने लोग, मैन्यू में क्या नया और सजावट में क्या विशेष था... संक्षेप में शादी का बजट किसका कितना ज्यादा रहा... यहाँ शक्ति को संदर्भों में देखने की जरूरत है। कुल मिलाकर इस दौर में जिसके पास जो है, वो उसका प्रदर्शन करने को आतुर नजर आ रहा है, मामला चाहे सुंदर देह और चेहरे का हो, पैसे का, ताकत का या फिर बुद्धि का... यहाँ सादगी एक अश्लील शब्द, भूख-गरीबी गैर जरूरी प्रश्न है तो जाहिर है कि प्रदर्शन को एक स्थापित मूल्य होना होगा, हम लगातार असंवेदना... गैर-जिम्मेदारी और अ-मानवीयता की तरफ बढ़ रहे हैं... बस एक चुभती सिहरन दौड़ गई...।

26/11/2010

कुछ भी तो व्यर्थ नहीं...


कार्तिक की आखिरी शाम... आसमान पर बादलों की हल्की परतों के पीछे चाँद यूँ नजर आ रहा था, जैसे उसने भूरे-सफेद रंग का दुपट्टा डाल रखा हो... फिर हर दिन बादलों, फुहारों और बारिश के बीच निकलता रहा... अगहन में सर्दी की तरफ बढ़ते और सावन-सा आभास देते दिन... अखबार बताते हैं कि ये गुजरात में आए चक्रवात का असर है... देश में कहीं कुछ होता है तो असर हमें महसूस होता है, कभी हिमालय पर गिरी बर्फ से शहर ठिठुरने लगता है तो कभी दक्षिण में आए तूफान से यहाँ बरसात होती है। और इन सबके पीछे भी दुनिया के किसी सुदूर कोने में हुआ कोई प्राकृतिक परिवर्तन होता है, तो क्या पूरी सृष्टि... ये चर-अचर जगत किसी अदृश्य सूत्र, कोई तार... किसी तंतु... या फिर किसी तरंग से एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है? होगा ही तभी तो कहाँ क्या घटन-अघटन होता है और उसका असर कहाँ पड़ता दिखाई देता है, चाहे दिखाई दे या न दें... । ये बहुत सुक्ष्म परिवर्तन हैं और लगातार स्थूलता की तरफ बढ़ती हमारी दुनिया इन सुक्ष्म परिवर्तनों को देख तो क्या महसूस भी कर पाएगी... ? ... हम तो रोजमर्रा में हमारे आसपास होते बारीक और बड़े परिवर्तनों के प्रति ही अनजान होते हैं... या फिर उन्हें देखकर अनदेखा कर देते हैं, तो ये सृष्टि की विराटता में घटित होता है, जिसकी एक बूँद का 100 वाँ हिस्सा ही हम तक पहुँचता होगा।
कभी ये फितूर-सा रहा था कि अपने हर कर्म के अर्थ तक पहुँचें... लेकिन फिर वही... अपनी संवेदनाओं, समझ, समय और ज्ञान की सीमा आड़े आ गईं और धीरे-धीरे तेज रफ्तार जिंदगी का हिस्सा होते चले गए। फिर भूल ही गए कि यूँ हर चीज के होने का एक अर्थ है, उद्देश्य है, महत्व है, अब ये अलग बात है कि हमें वो नजर नहीं आता है।
फिर भी प्रवाह का हिस्सा होने के बाद भी जैसा बार-बार महसूस होता है, कि आकंठ डूबने के बाद भी हमारे अंदर कुछ ऐसा होता है, जो खुद को सूखा बचा लेता है.... पाता है तो वो हमें ‘वॉर्न’ करता रहता है कि दुनिया की हर चीज हम देखें ना देखें, महसूस करें ना करें हमें, हमारे जीवन, हमारे कर्म... अनुभव और आखिर में हमारे स्व को प्रभावित करता है... इस दृष्टि से हर साँस, हर घटना, अनुभूति, हर वो इंसान जो हमारे संपर्क में आता है... हमें कुछ सिखाता है... कुछ समझाता है... समृद्ध करता है, चाहे उसका होना... घटना क्षणिक क्यों न दिखता हो, उसकी प्रक्रिया बहुत लंबी और प्रभाव बहुत स्थायी होते हैं।
याद आते हैं... सिलिगुड़ी से दार्जिलिंग की यात्रा में मिले वे कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे... तीन दिन की यात्रा की थकान... सुबह से फिर ट्रेन का सफर... खाने का सामान खत्म और तेज भूख... हर स्टेशन पर खाने जैसे ‘खाने’ की तलाश... नहीं मिलने पर निराशा ... और फिर सामने आई पराँठें-सब्जी को वो प्लेट.... कहीं कौंधा था – इस दुनिया में हमारा लेना-देना स्थायी रहता है, किसी-न-किसी रूप में फिर से हमारे सामने होता है, समय और देश की सीमा के परे... चाहे अगले-पिछले जन्म पर विश्वास न हो, लेकिन ऐसे किसी समय में महसूस होता है, कि ये जो अजनबी हैं, जिनसे हम पहले कभी नहीं मिले... शायद कभी नहीं मिलेंगे, हमारे जीवन में किसी भी रूप में आए हैं तो इसका कोई सूत्र कोई सिरा कहीं न कहीं हमसे जुड़ा है, हमारे जीवन, हमारे अनुभव या फिर हमारे भूत-भविष्य से, न मानें फिर भी अगले-पिछले जन्म से भी जुड़ा हो सकता है... ये अलग बात है कि वो हमें नजर नहीं आता है। तो कहीं कुछ भी होना बेकार नहीं होता, चाहे वो बुरा हो... वो हर अनुभव, सुख-दुख, पीड़ा, घटना, परिवेश, सपने, चाहत, ठोकरें, उपलब्धि हो या फिर कोई इंसान... जो कुछ भी सकारात्मक या नकारात्मक होता है, घटता है... हरेक चीज का एक अर्थ होता है, यदि दुख होता है तो भी और सुख होता है तो भी... हमें समझाता है, बचकर चलना, डूबकर जीना सिखाता है... समृद्ध करता है, वक्ती उत्तेजना या टूटन के बाद भी हम खुद को कदम-दो-कदम आगे की ओर पाते हैं... खासतौर पर दुख... पीड़ा... वेदना.... क्योंकि जैसा कि धर्मवीर भारती ने लिखा है
सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियाँ
यही पीड़ा, यह कुंठा, ये शामें, ये घड़ियाँ
इनमें से क्या है
जिसका कोई अर्थ नहीं।
कुछ भी तो व्यर्थ नहीं

31/01/2010

क्या है हम ....?


रविवार की छुट्टी....हाथ पसारे खड़ा खुला-खुला सा दिन... लिहाफ का भला लगने वाला गुनगुनापन...मीठी सरसराती वासंती बयार...खिड़की से उड़कर अंदर आते धूप के कतरे....मखमली-सा अहसास...उन्माद के तूफान के गुज़र जाने के बाद की शांति...पार्श्व में गुलाम अली का गाना...गर्दिश-ए-दौरा का शिकवा था मगर इतना न था....फिर से अहसासों का समंदर लहराने लगा...बस एक ही रात में ये कायापलट....!
कल रात चाँद पृथ्वी के सबसे पास....अमूमन जितना रहता है उससे 50 हजार किमी करीब था (खगोलीय भाषा में पेरिजी)...खूब बड़ा...साफ शफ़्फ़ाक...सफेद और चमकीला चाँद...देखा तो लगा देखते ही रहें.....लेकिन उसके पहले के बेचैनी....ऊब...त्रास और तकलीफ से भरे...बेहद उदास-से वे दिन...क्या है यह सब...? पता नहीं कब का पढ़ा-सुना याद आ गया कि पूरे चाँद की रातों में दुनिया में सबसे ज्यादा आत्महत्याएँ होती है...खुद के अंदर की बेचैनी का सबब कहीं यह चाँद तो नहीं....एक विचार और अब खुद हो गए 'अंडर-ऑब्जर्वेशन'...क्या चाँद का असर है...? ज्योतिषी कहते हैं कि जिसमें भी जल तत्व की प्रधानता होती है...वह चाँद बढ़ने से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता...बिल्कुल ऐसा तो नहीं फिर भी इससे मिलता-जुलता सा ही कुछ मार्सेल या फिर शायद जैस्पर्स ने कहा था (शब्दशः याद नहीं...वो कभी भी नहीं रह पाता है...सिर्फ भाव है) कि इस पूरी सृष्टि में इंसान का होना धूल के एक कण के समान है।
हम खुद से सवाल पूछे कि जब हमारे मन पर, हमारे तन पर, व्यवहार, परिस्थितियों और आखिरकार जीवन पर हमारा नियंत्रण नहीं है तो फिर हम है क्या चीज़....हम क्यों हैं? इस सृष्टि में हमारे होने से क्या बदला है और हमारे नहीं होने से क्या बदल जाएगा...हमारे होने का यहाँ कोई मतलब नहीं है...तो फिर हमारा होना इतना महत्वपूर्ण कैसे हैं? हमारे कर्म, विचार, आचार, सिद्धांत, जीवन, उपलब्धि, असफलता, सुख-दुख, संबंध, भावना, इच्छा, सपने, अनुभव इस सबका मतलब क्या है?
फिर सवाल...सवाल और सवालों का ढेर...। जब हम इस सृष्टि में अंदर और बाहर के न जाने किन-किन तत्वों से प्रभावित, नियंत्रित होते रहते हैं, तो क्या हम खुद को एक इकाई कह सकते हैं...? फिर हम सिर्फ 'हम' बचे भी हैं? और बचे भी है तो कितने...कहाँ....? फिर हमारे 'अहं' का, 'अहंकार' का कोई वजूद है, क्या वजूद होना चाहिए...? क्योंकि हम तो कुछ हैं ही नहीं....हमारा सारा 'अहं' धूल का मात्र एक कण......बस...। एक बार फिर से सोचें हम क्या हैं और यदि 'हम' कुछ भी नहीं है तो फिर क्यों हैं? यहाँ तो सवालों का अंबार है और जवाब.....!
कोई नहीं.......

11/12/2009

असंतुष्ट सुकरात की तलाश में....


फिर से एक मुश्किल दौर....सब कुछ सामान्य है शायद इसलिए.....ऐसे ही समय में अक्सर जेएस मिल याद आ जाते हैं.....जिनका लिखा हुआ हम अपने यूनिवर्सिटी के दिनों में दोस्तों के बीच दोहराया करते थे। बेंथम के सिद्धांत के विरूद्ध उन्होंने अपने विचार देते हुए कहा था कि -- It is better to be a dissatisfied man than a satisfied pig and it is better to be a dissatisfied SOCRATES than a satisfied fool...और हर उस दोस्त का मजाक उड़ाते थे जो संतुष्ट होकर जीता था। इन दिनों बहुत कुछ 'सेटिस्फाईड फ़ूल' जैसे हालात है, लेकिन क्या वाकई ऐसा है? क्योंकि एक बेचैनी और खुद के चुक गए होने का अहसास शिद्दत से हो रहा है। दूसरों के सामने खुद को सिद्ध करने की चुनौती हमेशा नहीं होती है, लेकिन खुद को खुद के सामने सिद्ध करने की चुनौती हमेशा सवार होती है। कभी भी खुद को इससे आज़ाद नहीं पाया है। उस पर तुर्रा ये कि ओशो का 'बैठो! कहीं जाना नहीं है' भी अपनी ओर खींचता है। अब तक इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके हैं कि आखिर जीने के सिद्धांत क्या होने चाहिए....ये भटकाव और अनिश्चितता है, जिससे बड़ी यातना शायद कोई और नहीं होती है....इसीलिए मुश्किल औऱ भी भारी हो जाती है। लगातार-लगातार ये अहसास कि बस अंदर सब कुछ खत्म हो चला है.....खासा बेचैन कर रहा है।
इसे रचनात्मक रूग्णता का नाम भी दिया जाता है, जब कोई विचार, कोई सृजन....कोई नई बात ज़हन में नहीं उभरती है और एक यही बात बेचैन कर देने के लिए काफी होती है। कुछ नया....कुछ नया....क्यों नहीं आ रहा है। हालाँकि बहस तो 'कुछ नया' शब्दावली पर भी की जा सकती है, क्योंकि विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि इस दुनिया में नया कुछ भी नहीं है, लेकिन दूसरे के लिए नहीं खुद अपने लिए तो हो ही सकता है। आप तो यह भी कह सकते हैं कि ये भी क्या 'पीस' है....कुछ लिखने के लिए नहीं हो तो कुछ भी लिख दें....लेकिन आप जरा ये भी बताएँ कि इस बेचैनी को दूर करने का उपाय क्या है?

15/11/2009

कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता


नवंबर में अगस्त सी बारिश हो रही है। पिछले पाँच छः दिनों से लगातार यूँ लग रहा है जैसे बारिश का ही मौसम हो.....। अमूमन इस महीने दीपावली होती है, लेकिन इस बार दीपावली-दशहरे से फारिग हो चुके लोगों को नवंबर ने सावन जैसी सौगात दी। गीला-गीले से दिन पर रूमानी-सी रातों के इस दौर में जब खिड़की के उस ओर मौसम का शहद रच-रचकर रिस रहा हो....छुट्टी भी हो (कारण कुछ भी हो, बीमारी ही सही) तो क्या उसे हथेलियों में समेट लेने की इच्छा नहीं होनी चाहिए....? लेकिन नहीं हुई....। मावठा है....लेकिन क्या एक सप्ताह तक लगातार गिरते देखा है कभी...फिर अगहन में.... पौष में गिरता है, माघ में गिरता है, लेकिन इस माह.... प्रकृति को भी उच्शृंखलता सूझती है कभी-कभी.... किस मौसम के आने का समय हो और कौन आ टपके बिल्कुल सरप्राइज...खैर यही तो बदलाव है...खुशी है, जीवन है वरना इस दुनिया में रखा क्या है?
पारदर्शी शीशों वाली बड़ी-सी काँच की खिड़की के उस ओर आसमान उमड़ रहा है हम वाइरल के लिहाफ में दुबके उस शहद से रिसने को नहीं झेल पाने के दुख के साथ बेसुध पड़े हैं। पोर्च का झूला....कॉफी का कप... सुरीली बंदिशें या फिर मीठी गजलें....सब कुछ हो सकता था, लेकिन कुछ नहीं है। हवा में उड़ा-उड़ा सा तन है और भाँग की हल्की-सी खुनक में डूबा सा मन है, जिसमें कुछ भी नहीं चल रहा था और कुछ भी नहीं हो रहा था। बस मौसम यूँ ही गुजर रहा था और हम उसकी तरफ पीठ कर सो रहे थे.....सच ही तो है कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता....कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता। कारण कुछ भी हो....बीमारी हो.... चाहे तो किस्मत ही कह लें.....आखिरकार जब सवाल हो और जवाब न हो तो ईश्वर और सब कुछ करने के बाद भी मनचाहा न हो तो....जी हाँ किस्मत है...।