02/11/2014

बेशक्ल...


फिर सुबह हो गई, आज फिर उसी जुमले से सुबह की शुरुआत हुई। हर दिन यही होता है... रात थकान से नींद तो जल्दी आ जाती है, लेकिन सुबह होने से पहले न जाने क्यों और कैसे नींद टूट जाती है। आज भी न जाने वह विचार था या फिर सपना... या अहसास... हाँ, अहसास भी, नींद में भी चेतना का कोई हिस्सा जाग्रत रहता है न... इसलिए वो अहसास भी हो सकता है। उसे एकाएक लगा कि वह पैने-नुकीले-नाखूनों वाले अदृश्य पंजों की गिरफ्त में है... नाखून चुभ रहे हैं, खून रिस रहा है और छूटने के लिए वह छटपटा रही है, लेकिन पकड़ ढीली होने की बजाए सख्त होने लगी है।
जाने डर था, बेचैनी थी या फिर दर्द... कि नींद टूट गई। वो जाग गई, साँस रूकने-सी महसूस हो रही है... ब्लैंकेट हटा दिया, पंखे की तरफ नजर गई, वो बंद था। बीच नवंबर में चाहे सर्दी वैसी न हो, लेकिन गर्मी भी तो नहीं हुआ करती कि पंखा चलाया जाए। लेकिन बेचैनी का अपना ताप हुआ करता है, शरीर से जैसे लपटें उठी हो... ऐसे हड़बड़ाकर उठी थी। उसके यूँ एकाएक उठने से मोक्ष की नींद चटकी थी... वह आधी नींद में बड़बड़ाया था... ‘क्या हुआ?’
‘ऊँ..... हूँ..... कुछ नहीं, सो जाओ तुम।’ सोचा उसका तो रोज का यही रोना है, मोक्ष को क्यों अपनी बेचैनी में घसीटे...। बाँहों पर हथेली घुमाई थी... जैसे अब भी उस सबसे बाहर नहीं आ पाई हो, या देखना चाहती हो कि कहीं सचमुच तो कोई जख्म नहीं है, खून तो नहीं रिस रहा है। थोड़ा वक्त लगा था, उस सबसे उबरने में... घड़ी देखी थी सुबह के साढ़े चार हो रहे हैं। हर दिन कमोबेश इसी वक्त उसकी नींद टूटती है। जानती है या शायद नहीं जानती है... बस महसूस करती है कि कोई बेचैनी तो है। वह पानी की बोतल मुँह से लगाकर दो घूँट पानी उतारती है... हर सुबह की तरह सब कुछ को हलक के नीचे ठेल देती है और फिर से सोने की कोशिश में लग जाती है।
बहुत देर तक भटकती है, रात के जंगल में, लेकिन नींद का कोई सुराग नहीं मिलता... फिर एकाएक नींद आ जाती है। सुबह जब बाहरी कोलाहल से नींद खुलती है तो देखती है कि 8 बज चुके है... फिर से सुबह हो गई।
आजकल हर दिन उसे लगता है कि सुबह हो ही नहीं। पड़ी रहे, सोती रहे... जब तक मन चाहे। उसके जीवन में सब कुछ बिल्कुल ठीक और सधा हुआ है। देखने वाले को तो यही दिखता है, लेकिन वो... बस... वही जानती है कि भीतर सबकुछ कैसा सूना और वीरान पड़ा हुआ है। कभी मोक्ष भी उस रास्ते पर बढ़ने लगता तो है, लेकिन फिर इस सबको लाइलाज पाकर लौट जाता है। अब तो उसके कहने की धार भी जाती रही है। कोई उससे सहानुभूति रखे तो कब तक और क्यों? आखिर समझ तो आए कि मसला क्या है? कोई क्यों इस तरह बेवजह बेचैन हो जाया करता है। कैफियत खुद उसके पास ही नहीं है, दूसरे को समझाए भी तो क्या...?
अब उसके सामने पूरा दिन है, टिक-टिक करती घड़ी है और उसके साथ रेस करती वह खुद है। कोई ऐसा वक्त उसके पास है ही नहीं जब वह खालिस खुद हो पाए। जीवन उसे मोहलत ही नहीं दे रहा है।
कई बार मन में आया कि काम छोड़ दे... फिर से उस जिंदेगी में लौट जाए, जब वह खूब पढ़ती थी, गाती थी, सुनती थी... बातें करती थी। जब वह बस यूँ ही पड़े-पड़े आते-जाते मौसमों से चुहल करती थी। बारिश की बूँदों के पैटर्न देखती, बारिश के गिरने की आवाज से एकाकार हो जाती। सर्दी की धूप में बैठे हुए आँखें बंद कर लेती और पलकों के पर्दों में छनकर भीतर आती धूप के रंगों को देखती। गर्मी में ढ़लते सूरज के साथ थोड़ी उदास हो लेती और तारों भरी रात के साथ रूमानी हो जाती।
अब तो उसे याद ही नहीं पड़ता कि घड़ी के साथ कदमताल करते कितने साल गुजर गए। कभी आस-पास के बारीक से बारीक बदलाव पर जिसकी नजर होती थी और हर चीज़ उसे वहाँ जाकर छूती थी, जहाँ से आह और वाह निकलती है। और आज... सब कुछ होता है, बस हर चीज उससे बचकर गुजर जाती है। शायद मशीनें ऐसी ही हुआ करती होगी। जो कपड़े हाथ में आए पहन लिए... जैसा भी खाना बना हो, गले से नीचे उतार लिया...। कुछ भी हुलसकर नहीं कर पाती... हो ही नहीं पाता।
वह नहाकर आई तब मोक्ष नाश्ता कर रहा था। जब उसने जल्दी से अगरबत्ती लगाई तो मोक्ष ने हँसते हुए कहा ‘इसे कहते हैं कौवा-पूजा। कितनी दौड़ते भागते करती हो?’
उसने घूरकर मोक्ष को देखा तो वह जोर से खिलखिला दिया। वह बालों में जल्दी-जल्दी कंघी कर रही थी, तभी सवाल आया... ‘आजकल फिटनेस के लिए कुछ करती नजर नहीं आती हो...? कुछ कर रही हो?’
एकसाथ कातरता और बेबसी उसके चेहरे पर उतर आई... ‘कब करूँ, बताओ... देख तो रहे हो।’
स्टेयरिंग व्हील पर एक हाथ और गियर बदलते दूसरे हाथ के बीच फोन बजता है। दूसरी तरफ से माँ पूछ रही है ‘हलवा टेस्ट किया? कैसा बना?’ वह माँ को बताना तो नहीं चाहती कि दो दिन पहले जो हलवा माँ ने भेजा था, अभी वह उसे चख नहीं पाई है... लेकिन बेसाख्ता ही निकल गया ‘अभी टेस्ट नहीं कर पाई’
माँ ने गुस्सा किया था ‘क्यों...? तेरे लिए इतनी मेहनत की और तूने अभी तक चखा भी नहीं। इतनी भी फुर्सत नहीं है तुझे...’
उसने डाँट सुन ली थी... क्या कहती... सच में फुर्सत नहीं है। कई बार सोचती है कि क्या सारी कामकाजी महिलाएँ ऐसी ही बेचैनी से गुजरती हैं???


आईने के सामने खड़ी होकर वह खुद को देख रही है... सोचती है कि दिन भर में कहाँ-कहाँ वह छूटती रहती है... बिस्तर से लेकर दफ्तर तक हर कहीं वह कतरा-कतरा रिसती है, क्षरित होती है और छूटती रहती है। खुद को बीनती हुई वह लौटती है, लेकिन फिर भी उससे कुछ बना नहीं पाती है। उसने दिन भर में बिखरे अपने टुकड़े सहेजे हैं... नींद में जाने से पहले वह तरतीब देना चाहती है... लेकिन खुद को खत्म पाती है... ऊर्जा नहीं बची है अब और... बस सोचती है, देखने वालों को सब कुछ कितना परफेक्ट दिखता है... जिंदगी से जगमगाती आँखें, गालों के गड्ढों वाली हँसी, शोख रंगों के कपड़े, आत्मविश्वास से लबरेज चाल... इफीशिएंट, पोलाइट, वेल ड्रेस्ड- वेल बिहेव्ड-वेल मैनर्स और अवेयर लड़की... कौन जानेगा कि इन खूबियों वाले खूबसूरत लिबास के भीतर उदासीनता है... तीखी बेचैनी और गहरी छटपटाहट है... एक कसमसाहट है... खुद के मशीन में बदल जाने की... विचारों के बीत जाने की, संवेदनाओं के छिटक जाने की और भावनाओं के रूठ जाने की...।
वह चाहती है कि खुद की शक्ल उकेरे... अपने भुलाए जा चुके वजूद को आकार दे... मगर कल फिर से सुबह होगी... इसलिए उसे खुद को यहीं छोड़ देना है और हो जाना है उस नींद के हवाले जो उसका बचा-खुचा पैनापन भी रेंत देने वाली है।

07/09/2014

बक रहा हूँ जुनूं में...

रात का न जाने कौन-सा वक्त रहा होगा... सतह पर ठहरी हुई थी नींद, गहरे उतरी भी नहीं थी कि अतल गहराई से निकल कर उदासी ने नींद की पतली-सी झिल्ली को फाड़ दिया और नींद पर फैल गई। तब भैरवी के स्वर हवाओं में तैर रहे थे... फिर भी अभी सुबह होने में वक्त था। कई दिनों से ये सिलसिला चल रहा था, दिन भर की थकान के बाद रात नींद तो जल्दी लग जाया करती है, लेकिन जैसे ही शरीर कमजोर पड़ा मन उसे हरा देता और नींद टूट जाती। कभी बिना सपनों के गहरी नींद की दौलत हासिल थी मुझे... आजकल सपने तो नहीं, मगर विचार, बेचैनी और संवाद चलते रहते हैं। और नींद... ऊपर-नीचे करती रहती है। आखिर मन के जीतते ही नींद विदा हो जाती है। कभी दिन चढ़े तक नींद आती रहती थी... आजकल पौ फटने से पहले ही वो रूठ जाती है।
कितना बोझ है... क्या बोझ है... इतना दबाव, इतनी बेचैनी और इतना तनाव। न बाहर पूरी हूँ न भीतर... न बाहर को भर पा रही हूँ और न भीतर को तुष्ट कर पा रही हूँ... बस दौड़ है हर कहीं को संभाल लेने, सहेज लेने की... किसी को समझाऊँ भी तो क्या... और कोई समझे भी क्यों...? जाने मैं वक्त के साथ दौड़ में हूँ या फिर वक्त के खिलाफ, अपने बारे में मुझे कुछ भी साफ-साफ नजर नहीं आता। कभी अंदर तो कभी बाहर की खींचतान में जो यातना मेरे हिस्से आई है, उसका हिसाब खुद मेरे पास ही नहीं है। क्या छोड़ दूँ और क्या साथ ले चलूँ? इसका जवाब भी मेरे पास नहीं है। कई सवाल है... हर वक्त काँटों की तरह चुभते हैं, लेकिन जवाब नहीं है... जवाबों की तलब में लगातार हार की हिस्सेदार हो रही हूँ। मगर यातना का सिलसिला कहीं ठहरता ही नहीं है। कभी सोचती हूँ कि क्यों मुझे रात का अँधेरा आजकल इतना भाने लगा है...? इतना कि सूरज का आने की कल्पना भी दहशत से भर देती है, तो चाँदनी बेचैन करने लगती है, हर वो चीज जो बाहर ले जाती है, उससे मुझे डर लगने लगा है और इसलिए रोशनी से भी। लेकिन भला इस डर से बचाव कैसे होगा, हर दिन सूरज उगेगा... हर दिन सुनहरी रोशनी से रोशन होगा... हर दिन वही पुराने सवाल सिर उठाएँगे और हर दिन जवाबों की तलाश में भटकती रहूँगी... और रात ही मेरी पनाहगाह होगी... न जाने कब तक ये सिलसिला चलता रहेगा... न जाने कब तक इसे सहती रहूँगी यूँ बिना थके...

26/08/2014

विसर्जन हो, अपने अहंकार और मोह का


अपनी रचना के प्रति तटस्थता का भाव ही रचनाकार को सृष्टा बनाता है... ईश्वरतुल्य... क्योंकि सृजन के क्रम में गहरी आसक्ति और पूर्णता पर उतनी ही गहरी वीतरागिता ... यही तो है संतत्व का सार, उत्स... और यही है ईश्वरत्व...।
यदि ईश्वर के होने के विचार को मानें और ये भी मानें कि ये सारी सृष्टि उसकी रचना है तो सोचें कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना गहरी आसक्ति, असीमित कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता के साथ की और सृजन करने के बाद उसे त्याग दिया... छोड़ दिया... सृष्टि को उसके कर्म औऱ कर्मफल के साथ...। कितना अनुराग था, जब रचना की जा रही थी, एक-एक चीज को सुंदर बनाया... विविधवर्णी और विविधरंगी... बहुत कलात्मकता और बहुत कल्पनाशीलता के साथ.... और फिर पूर्णता पर उसके प्रति उदासीनता ओढ़ ली... खुद को अपनी रचना से मुक्त कर लिया... उस मोह से, उस अहंकार से मुक्त कर लिया जो सृजनकर्ता को हुआ करता है... यही तो ईश्वर तत्व है।
सैंड आर्टिस्ट सुदर्शन पटनायक की सैंड पैंटिंग का सबसे पहला फोटो देखा था लगभग २०-२२ साल पहले... तब से ही एक सवाल परेशान करता रहा है मुझे... कि जब वे समुद्र किनारे रेत पर रचना कर रहे होते हैं तो उनके मन में क्या हुआ करता होगा...? आखिर तो उनकी रचना उनकी आँखों के सामने ही नष्ट हो जाने वाली है... तो उन्हें क्या लगता होगा, अपनी रचना के प्रति कोई मोह, कोई ममता नहीं उमड़ती होगी? इन दिनों लग रहा है कि शायद उस सवाल का जवाब खुद में ढूँढ पा रही हूँ।
परंपराओं से बहुत दूर का भी रिश्ता कभी रहा नहीं। और धर्म से तो जरा भी नहीं। धार्मिक होना जाने क्यों गाली सा सुनाई देता है। फिर भी उत्सव पसंद है... आजकल न जाने कैसी मनस्थिति में रहती हूँ कि हर कहीं दर्शन, फिलॉसफी ढूँढ ही लेती हूँ। अब पता नहीं मिट्टी से सृजन की परंपरा के पीछे किस दर्शन की कल्पना की थी, लेकिन निष्कर्ष निकल आए हैं।
गणपति की मिट्टी की प्रतिमा की स्थापना के गला फाड़ू अभियान में एकाएक नई धुन सवार हुई... खुद बनाने की। मिट्टी से बचपन भर दूर रहे और बड़ों की शाबाशी पाई... ये कि हमारे बच्चे इतने साफ-सुथरे कि कभी मिट्टी-कीचड़ में हाथ गंदे कर नहीं आए (आज सोचती हूँ तो खुद को लानतें भेजती हूँ... कि क्यों नहीं मिट्टी-कीचड़ में खेलें) खैर सिर धुन लेने से भी बदलेगा क्या? तो अब समस्या ये कि बनेंगे कैसे... क्या-क्या लगेगा बनाने में और कैसे बनेंगे... क्योंकि जो काम नहीं आता, उसे करने से पहले गहरी बेचैनी रहती है...। पूछकर, जानकर, पढ़कर तय कर लिया कि मिट्टी से गणेशजी बनाएंगे, इस बार।
बनाने बैठे... उसी दौरान लगा कि इतनी मेहनत, लगन, कल्पनाशीलता और ऊर्जा लगाकर बनाएंगें, उन्हें प्रतिष्ठित करेंगे और फिर उन्हें विसर्जित कर देंगे? उदासी ने आ घेरा... अपनी रचना के प्रति मोह जागा... मन का करघा चल रहा था, ताना-बाना बुना जा रहा था। एक विचार यूं भी आया कि यदि ये खूबसूरत बना तो भी इसे विसर्जित कर देना होगा...?
हाँ... शायद यही तो है, मिट्टी से सृजन करने और विसर्जन करने का दर्शन...। उस मोह का त्याग जो अपने सृजन से होता है, उस अहंकार का त्याग जो हमें सृजनकर्ता होने का होता है... अपनी बनाई रचना को अपने ही हाथों विसर्जित करना... मतलब अपने ही मोह का परित्याग करना... जब रचना का विसर्जन करेंगे तो जाहिर है उस अंहकार का भी विसर्जन होगा, जो हमें सृजनकर्ता होने से मिलता है।
फिर मिट्टी... मतलब अकिंचन... कुछ नहीं, जिसका कोई भौतिक मोल नहीं, फिर भी अनमोल... क्योंकि ये पृथ्वी का अंश है, अक्स है, हमारे शरीर की भौतिक संरचना का एक अहम तत्व। इसके बिना जीवन नहीं, जीवन की कल्पना नहीं... पंचतत्वों की गूढ़ दार्शनिकता न भी हो, तब भी मिट्टी जीवन का आधार है, जैसे सूरज है, आसमान है, पानी है, उसी तरह मिट्टी भी है। और तमाम सफलताओं और उपलब्धियों के सिरे पर खड़ी है मिट्टी... मिट्टी मतलब खत्म होना, मिट्टी में मिलना... मिट्टी का दर्शन है, खत्म होना... अंततः सब कुछ को विसर्जित हो ही जाना है। तो लगा कि इस तरह के विसर्जन को जिया जाए, उस छोड़ने को... उस मुक्त करने और होने को महसूस किया जाए जो सृजनकार को संत बनाता है।
संतत्व को महसूस करें... गणपति की मूर्ति मिट्टी की हो, ये तो प्रकृति के लिए है, लेकिन यदि उस मूर्ति को खुद बनाएँ और खुद ही विसर्जन करें... ये हमारे लिए है... खुद हमारे लिए। इस बहाने हम अपने गर्व को, मोह को और अहंकार को विसर्जित करें... गणपति प्रतिमा के साथ... खुद बनाएँ और खुद ही विसर्जित भी करें।

23/08/2014

लिखे नहीं जाते हैं रंग...

रंग उड़ाना चाहती है, रंग भरना भी, गाना भी और लिखना भी... मन हुलसता है उसका आँखों पर छाए आसमानी आसमान और उस पर तैरते भूरे-सांवले-सफेद बादल... उमगाते हैं, रंगों को पकड़ने के लिए, मचलती है, लेकिन दूर चले जाते हैं सारे रंग... उसकी जिद्द है समेटने की... सहलाने की, उसमें डूबने और रंगों को खुद में डूबा लेने की... रंग... हर तरफ जो बिखरे हैं। समंदर वाला नीला, मिट्टी के खिलौने बेचती छोटी लड़की के लहंगे वाला बैंगनी, फूल लिए घूमती लड़की के कुर्ते-सा पीला, आसमानी नीला, फाख्ता के रंग-सा भूरा... मोर के पंखों-सा नीला-हरा... बरसात वाला हरा, सुबह वाला सिंदूरी, दोपहर वाला सुनहरी, शाम वाला उदास सांवला, रात वाला गहरा सुरमयी... पत्तियों वाला हरा, गुलमोहर वाला लाल, अमलतास वाला पीला, गुलाबों वाला गहरा गुलाबी, नींबू वाला पीला... खुद के दुपट्टे सा सतरंगा... बस रंग ही चाहती है, पकड़ना, फैलाना, बिखेरना, लिखना...डूबना... डुबो देना... मगर लगता है कि उससे सारे रंग रूठे हुए हैं।
वो सोचकर उदास हो जाती है, सारे रंग उसकी आँखों की कोरों को छूकर गुजरते हैं, दिमाग के खाँचों में उतर जाते हैं... वो हाथ पकड़कर थाम लेना चाहती है, मन में उतारकर बिखेर देना चाहती है। कभी उसे भ्रम होता भी है, कि उसने थाम लिए हैं, भर लिए हैं मुट्ठी में... फैला दिए है जैसे फैलाते हैं रंग किए दुपट्टे... सूखने के लिए। खुश हो जाती है... झूमने और नाचने लगती है, सिर को आसमान की तरफ तानकर गहरी साँसें लेती है, भर लेती है सारी कायनात की खुशबू... और खोलती है अपनी मुट्ठी... अरे ये क्या, कोई रंग नहीं है हाथ में। हथेली पूरी स्याह हुई पड़ी है। आँखों में कुछ गरम और तरल-सा उतर आया... एक निराशा साँसों के रास्ते शरीर में समा गई, और खून की तरह नसों में बहने लगी... स्याही आँखों के सफेद रंग पर फैल गई...। रंग मन को नहीं छू पा रहे हैं... अब तो उसे रंग दिखना भी बंद हो गए... हर जगह अँधेरा फैल गया, ये स्याही अब उसके साथ चल रही है... मन अब भी रंगों के पीछे भाग रहा है, लेकिन उसे रंग दिखाई देना बंद हो गए हैं। रंग उससे रूठ गए हैं, छिटककर दूर चले गए हैं। वो फिर से उदास है... अब रंग दिखेंगे ही नहीं तो क्या तो वह बिखेरेगी और क्या फैलाएगी और क्या लिखेगी...? अब कभी भी वह नहीं लिख पाएगी रंग...कभी भी नहीं खिल पाएंगें रंग...।

27/07/2014

तीन-दुनिया, तीन सच

साहचर्य
जाने क्या तो बेचैनी रही होगी कि रात भर नींद ने अपनी आगोश में नहीं लिया, बस सतह पर ही बहलाती रही। सुबह उठे तो हल्का सिरदर्द था। रविवार का दिन था तो दर्द को सहलाने की सहूलियत भी थी और मौका भी। आसमान बादलों की चहलकदमी से गुलजार था... दिन का रंग बरसात में सुनहरा नहीं साँवला-सा होता जाता है, तो आज भी वैसा ही था। आँखों पर नीम, गुलमोहर और अमरूद की टहनियाँ अपनी पत्तियों के साथ चंदोवा ताने हुए थीं। जाने कब-कहाँ का पढ़ा-सुना याद आने लग रहा था। याद आया कि अपने काम के दौरान मेरी कलिग ने बताया कि प्रकृति की व्यवस्था के तहत किसी भी पेड़ की हर पत्ती को उसके हिस्से की धूप मिलती है, ताकि वह अपना भोजन बना सके। तकनीकी भाषा में इसे ‘photosynthesis’ की प्रक्रिया कहते हैं। लेकिन किसी भी पेड़ को नीचे से देखकर ऐसा अहसास तो नहीं होता है कि इसकी हर पत्ती पर धूप पड़ रही है, लेकिन ऐसा होता तो है। बड़ा अभिभूत करने वाला सच है... पेड़-पौधों की दुनिया में कितना एकात्मवाद है। कोई किसी का हक नहीं छीनता है, कोई किसी के साथ अन्याय नहीं करता है। एक ही पेड़ पर अनगिनत पत्तियों के होते भी किसी एक के साथ भी कोई अन्याय नहीं... प्रकृति कैसे निभाती होगी, इस तरह का संतुलन... और पत्ते रहते हैं कितने साहचर्य से...?

प्रतिस्पर्धा
थोड़ी फुर्सत का वक्फ़ा आया था हिस्से में। बाहर बारिश हो रही थी, हल्की रोशनी में बूँदें गिरती हुई, झरती हुई नजर तो आ रही थी, लेकिन दिन जैसा नज़ारा नहीं था, लेकिन बहुत इंतजार के बाद आखिर बरसात हो रही थी। खिड़की की नेट पर एकाएक एक छिपकली दिखाई दी... बहुत एहतियात से बैठी हुई... ऊपर की तरफ नजरें गड़ाए, जब ऊपर देखा तो झिंगुर नजर आया। ओह... ये झिंगुर की ताक में है। एकदम से चेतना सक्रिय हुई, नेट पर जोर से हाथ मारा... जाने क्या हुआ, झिंगुर पहले उड़ा या फिर छिपकली गिरी, लेकिन झिंगुर की जान बच गई। लेकिन इसके तुरंत बाद ही सवाल उठा ‘किसका भला किया? झिंगुर की जान बची, लेकिन छिपकली... उसका निवाला तो छीन लिया... तो क्या भला किया।’ लगा कि प्रकृति ने जीव-जंतुओं की दुनिया की रचना बड़े निर्मम ढंग से की। यहाँ तो बस प्रतिस्पर्धा ही प्रतिस्पर्धा है। हमने इसे नाम दिया ‘ecology’। चार्ल्स डार्विन ने इसी दुनिया से तो अपने महानतम सिद्धांत का स्रोत पाया था ‘survival of the fittest’। यहाँ की संरचना में जो सबसे प्रतिस्पर्धा में जीत जाएगा वो जीवित रहेगा... लेकिन यहाँ भी मामला जरूरत का है। भूख का है, अस्तित्व का है।

लिप्सा
तो फिर हमारी दुनिया में क्या है? इस दुनिया में हम कुछ भी किसी के लिए नहीं छोड़ते हैं। ecology या पारिस्थितिकी से आगे जाती है, हमारी दुनिया। यहाँ डार्विनवाद भी हार जाता है, क्योंकि यहाँ अस्तित्व का संकट भी वैसा नहीं है। अजीब बात है कि प्रकृति इस सबसे बुद्धिमान जीव के लिए पर्याप्त व्यवस्था की है, लेकिन फिर भी वह संघर्षरत् है। अपनी भूख के लिए नहीं, अपने अस्तित्व के लिए भी नहीं... अपनी लालच के लिए। उस लालच के लिए जिसका कोई ओर-छोर नहीं है।
हर पत्ती नई पत्ती के लिए धूप छोड़ती है। ये वनस्पति की दुनिया की खूबसूरती है। जंतुओं की दुनिया में एक का वजूद दूसरे के जीवन पर निर्भर करता है। ये उनकी दुनिया की कड़वी हकीकत है, जिसे बदकिस्मती से उन्होंने नहीं चुना है। ये दुनिया उन्हें ऐसी ही मिली है। लेकिन हमारी दुनिया... जिसे हमने ही बनाई है। यहाँ का तो कोई सच नहीं है। जिसके हाथ ताकत आई, उसने दूसरे की दुनिया हथिया ली। हमने अपने-अपने अधिकारों पर तो कब्जा किया ही हुआ है, दूसरे के अधिकारों का भी हनन कर लिया है। न हमें इसकी भूख है न जरूरत... बस हमने अपने अहम् को तुष्ट करने के लिए इस दुनिया को जहन्नुम में तब्दील कर दिया और ये दौड़ है कि कहीं थमती ही नहीं है।

10/07/2014

कर्म ही आनंद है

वर्ल्ड कप फुटबॉल के सेमीफाइनल में आखिरकार मेजबान ब्राजील जर्मनी से हार गया। सारे मीडिया ने इस मैच को जमकर कवरेज दिया... आखिर तो दुनिया के एक बड़े हिस्से में फुटबॉल जुनून है... हमारी भाषा में कहें तो धर्म... जैसे हमारे यहाँ क्रिकेट है... धर्म। तो ब्राजील जो कि फुटबॉल विश्वकप खिताब के दावेदारों में था वो सेमीफाइनल में ही बाहर हो गया।
खुद ब्राजील में आँसुओं का सैलाब आ गया। वहाँ लोग निराशा और हताशा में हिंसा और आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं। देशी-विदेशी मीडिया और सोशल मीडिया उस हार का जमकर मजाक बना रहे हैं। हार को इतना बुरा, इतना शर्मनाक बना दिया है कि अब हार हाल में जीतना एक मूल्य हो गया है। तभी तो जीतने के लिए हर नैतिक-अनैतिक, जायज-नाजायज उपाय अपनाए जाते हैं। क्योंकि हर हाल में जीत ही सबसे बड़ा और सबसे पहला सच है।
सोचें तो खेलों की ईजाद के पीछे बहुत सारा दर्शन और वजहें रही होंगी... आनंद, जोश, स्फूर्ति, व्यायाम, सामंजस्य, धैर्य, प्रबंधन, संतुलन ... और भी कुछ, लेकिन इसका मतलब सिर्फ और सिर्फ जीत हासिल करना तो कतई नहीं रहा होगा, लेकिन आज खेल का मतलब ही जीत है। चाहे चीन में ओलंपिक की तैयारी से संबंधित रिपोर्ट पढ़ लें या फिर फुटबॉल वर्लड कप के मैचेस में दिखाई देती हिंसा... इस बार ही ऊरग्व के सुआरेज ने इटली के खिलाड़ी जॉर्जिया चेलिनी को कंधे पर काट लिया... और ये उसने तीसरी बार किया है। इसी के एक दूसरे मैच में कोलंबिया के युवान जुनिगा ने ब्राजील के नेमार को अपने घुटने से इतनी बुरी तरह से मारा कि उसकी रीढ़ की हड्डी में चोट आ गई और वो वर्ल्ड कप खेलने के लायक नहीं रहे। आखिर हम खेलों के माध्यम से क्या सीखा रहे हैं? समझ नहीं आता कि खेल, खेल रहे हैं या फिर युद्ध लड़ रहे हैं?
हार भी तो खेल का ही हिस्सा है। हाँ असफलता तोड़ती तो है, लेकिन जिस तरह से रात और दिन जिंदगी का हिस्सा है, सुख-दुख, धूप-छाँव जीवन का हिस्सा है, उसी तरह हार और जीत भी...। आखिर ऐसा कौन है, जिसे जीवन ने हमेशा दिन-सुख-छाँह-जीत ही दिया है? जिसे सुख मिलता है उसे दुख भी मिलता ही है और खेल ही तो हमें ये सिखाते हैं सिखा सकते हैं कि हार भी जिंदगी का ही हिस्सा है।
ये समझ नहीं आता कि खिलाड़ी खेलते हुए आनंद लेते हैं या फिर बस सारा ध्यान हर हाल में जीतने का ही होता है। अनुभव कहता है कि जब हम कर्म करते हुए परिणाम पर ध्यान लगाए रहते हैं तो फिर कर्म का मजा खत्म हो जाता है, न तो हम कर्म से संबंद्ध हो पाते हैं और न ही कर्म से हम संतोष पाते हैं। वो बस एक यांत्रिक क्रिया होकर रह जाता है, जिसमें न रस है, आनंद और न ही संतोष... वो बस एक क्रिया है।
थोड़ी पुरानी घटना है, ट्रेन में सफर कर रही थी और बहुत सारे लोग किसी सम्मेलन में भाग लेने के लिए जा रहे थे। (बाद में पता चला कि वे वामपंथियों रैली में हिस्सा लेने पंजाब जा रहे थे) उनकी आपस की बातचीत सुन रही थी... उसका निचोड़ ये था कि पूँजीवाद सिर्फ आर्थिक प्रणाली नहीं है, इसके असर बहुत गहरे होंगे, ये जीवन के हर क्षेत्र में गहरे और स्थायी प्रभाव पैदा करेगी। बात तब ज्यादा समझ नहीं आई थी। लगा था कि पैसा आ जाने से जीवन-शैली में बदलाव होगा, कला-साहित्य-संस्कृति-अध्यात्म और दर्शन में कैसा और क्या बदलाव होगा... हो सकता है। जैसा कि होता है, हर नई चीज़ जो मन को भाती है, जहन के किसी कोने में स्थापित हो जाती है। वक्त बहुत धीरे-धीरे उस पर से धूल झाड़ता चलता है और एक दिन वो सिद्ध होती है... या सही या गलत...। तो उस दिन की वो बात सही सिद्ध हुई।
भौतिकवादी जीवन-शैली हमारे जीवन से आंतरिकता छीन रही है। जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे हमारे जीवन में physicality शामिल होती जा रही है और न सिर्फ शामिल हो रही है, बल्कि वह विस्तार पा रही है। हमारा प्रयासों में... कोशिशों में... सफर में... यकीन कम हो चला है। हम बस परिणामों की तरफ ही देखते हैं। हम कर्म का आनंद भूल गए हैं और परिणामों की उपलब्धि को ही खुशी का स्रोत समझने लगे हैं। तभी तो हमारा सारा लक्ष्य बस रिजल्ट्स पर ही हुआ करता है। खेलों में इस तरह की प्रवृत्ति इसमें आ रहे बेशुमार धन की वजह से भी पैदा हुई है... बात तो वही है न... भौतिकता... फिजिकलिटी...! तो फिर रस कहाँ है, आनंद कहाँ है, जहाँ हिंसा हो, द्वेष और ईर्ष्या हो, जहाँ दबाव हो हर हाल में बेहतर सिद्ध होने का वहाँ कहाँ से रस, आनंद और तृप्ति आ सकती है?
हम अपने आस-पास जहाँ भी नजर दौड़ाएँ हर तरफ भौतिकता पसरी पड़ी है... भौतिकता सिर्फ वस्तु नहीं ये एक विचार है, एक जीवन-शैली भी। सुंदर चेहरों से लेकर खूबसूरत फोटो तक... भव्य शादियों से लेकर महँगे मोबाइल और उतने ही मँहगे कपड़ों तक। बाजार ने हमें दो शब्द दिए हैं, १. परफार्मेंस और २. टारगेट... और इन दोनों ने हमारे जीवन से रस सोख लिया है। हमारे कर्मों का सारा निचोड़ सिर्फ परिणामों पर हुआ करता है और उसके लिए हम नैतिक-अनैतिक, सही-गलत हर तरह के उपाय अपनाते हैं।
जाने कर्म करें औऱ फल को ईश्वर पर छोड़ देने वाले गीता के आप्त-वाक्य का गूढ़ार्थ क्या रहा होगा... हम तो बस इतना समझे हैं कि कर्म करते हुए उसमें डूब जाना और कर्म को ही लक्ष्य बना लेने से जीवन आनंदमयी होता है। क्योंकि चाहे इसे हम भाग्यवाद कह लें या फिर बहुत कर्मवादी हो जाएँ तब भी सच सिर्फ और सिर्फ इतना है कि महज कर्म पर ही आपका अधिकार है... परिणाम पर नहीं।

07/07/2014

रंग से मिली आज़ादी

रंग की अहमियत मुझसे बेहतर कौन समझ सकता है जो साँवले रंग के साथ ही जन्मा हो... नर्सरी में ही ये तो समझ आ ही गया था कि कुछ तो ऐसा है जो मुझे दूसरों से कमतर करता है। और ये अहसास साल-दर-साल पुख्ता होता चला गया। बावजूद घर के मजबूत संरक्षण के ये बात कभी सहानुभूति के तौर पर तो कभी उलाहनों और तानों के तौर पर बता दी जाती थी कि ‘तेरी शादी कैसे होगी?’ बस सारी चीजें उस शादी के इर्द-गिर्द ही घूमती रही। आत्म-विश्वास कम होता चला गया और मैं धीरे-धीरे अपने खोल में सिमटने लगी। हर लड़की मुझे खुद से बेहतर लगती रही। मिडिल और हाई स्कूल के बीच के सालों में मेरी दिशा तय होने लगी।
सारी स्त्री-सुलभ चीजें चुन-चुनकर इरेज कर दी गई। कपड़े, जूलरी, मेकअप, फैशन... सब कुछ से ध्यान हटा लिया गया। (उस वक्त के अपने अटायर पर आज तक ताने सुनती हूँ, कि पता है कैसे रंग पहनती थीं) मन को म्यूट कर दिया गया और दिमाग ने कमान संभाल ली। जो कुछ बड़े पढ़ते थे, वो सब पढ़ने और समझने में खुद को झोंक दिया। इस विचार के साथ कि ‘चाहे आज ये सब समझ नहीं आ रहा है, लेकिन कोशिश करती रही तो एक दिन जरूर समझ आएगा।’ शुरुआत में पढ़ने में रस आने लगा, फिर आनंद और अंत में नशा आने लगा। जब भीतर ही रहने लगी तो बाहरी दुनिया की समझ आ ही नहीं पाई। कई साल बुद्धिवाद के पागलपन में बिताए... ये मानकर कि बुद्धि की सीमा से बाहर कुछ है ही नहीं। और यदि खुद को सिद्ध करना है तो दिमाग को हथियार बनाना ही होगा... फिर भी रंग की कमतरी से उबर नहीं पाई। यूँ किसी और चीज में भी कोई झंडे नहीं गाड़े थे। हर जगह औसत ही रही... ।
आज फिर उसी बात पर लंबी बहस हुई जिस पर पिछले 13 सालों से चल रही है... हर बहस में मैं कंविंस करवाने की कोशिश करती हूँ, लेकिन हर बार असफल होती हूँ। ये बात खारिज ही होती चली जा रही है, सालों-साल से कि हमारे यहाँ लड़कियों के रंग का मतलब होता है। या यूँ कि रंग भी खूबसूरती का मापदंड होता है। व्यक्तिगत तौर पर कोई चाहे जो मानें, लेकिन सामाजिक तौर पर फेयर होना... बस फेयर होना ही है। लेकिन नहीं माना जाता है, न व्यक्तिगत तौर पर और न ही सामाजिक सच को... बस खारिज किया जाता है।
आज भी बात हमशक्ल की हीरोइन ईशा गुप्ता के उस बयान से शुरू हुई थी जिसमें उसने कहा था कि साँवला रंग होने की वजह से उसे भेदभाव सहना पड़ा। उसकी बहनें फेयर थीं इसलिए भी उसे ज्यादा इस चीज का सामना करना पड़ा। और सानिया मिर्जा और नंदिता दास का उदाहरण भी... लेकिन बात इसी नोट पर खत्म हुई कि ‘तुम्हारा परिवेश बेहद अ-संवेदनशील था और तुम अति-संवेदनशील’। अन्यथा वक्त बदल गया है, सौंदर्य-सौंदर्य होता है, गोरा-काला नहीं...। होता है... मैं गवाह हूँ।
क्या अब भी...?
नहीं, अब नहीं...।
जीवन में बदलाव तब आया, जब प्यार आया। अहसास जागा कि उतना बुरा भी नहीं है सबकुछ... फिर भी वो सब कुछ नहीं आया जो इतने सालों से बंधक रहा। सालों-साल कोशिशें हुईं बहुत एफर्ट और बहुत मशक्कत के बाद मैं उस एहसास-ए-कमतरी से बाहर आ पाई हूँ। बहुत सारी दीगर चीजों के साथ ही आज मैं अपने रंग से भी आजाद हो पाई हूँ।
लेकिन आज भी मैं इस बात पर यकीन करती हूँ कि चाहे जो हो जाए, हमारे देश में खूबसूरत होने की सबसे पहली और सबसे अहम शर्त है फेयर होना... और चाहे कोई कुछ कहे, यही सच है। और ये हर वर्ग और हर जगह एक-सा है... उदाहरण नंदिता का ले लें या फिर नयोनिका का...


06/07/2014

आत्मालाप...!

चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले/कितने गम थे जो तेरे गम के बहाने निकले... जिस वक्त नींद टूटी उस वक्त रात से चल रहे म्यूजिक सिस्टम पर यही गज़ल बज रही थी। खिड़की के उस पार चाँद अपने शबाब पर था। उसे देखकर याद आया कि आज पूरणमासी है। लगना तो चाहिए था, लेकिन कभी-कभी अपना आप ही खुद से छूट जाया करता है और छिटककर इतनी दूर चला जाता है कि उस तक पहुँचने में कई सारे दिन गुजर जाते हैं। कामाक्षी न जाने किस चीज से बेचैन है... दूर-पास कहीं भी तो उसकी बेचैनी की वजह का कोई सिरा नहीं मिल रहा है। बस वो बेचैन है। खुद से बहुत दूर, दुनिया में डूबकर बुरी तरह से छटपटा रही है। इस बहाव में उसने खुद को बहा दिया है। शायद इस दहशत में उसकी नींद टूटी थी कि कहीं वह खुद को विसर्जित तो नहीं कर चुकी है... रात के जिस पहर उसकी नींद टूटी थी, उसके बाद उसने बहुत कोशिश की थी कि उसे दूसरे सिरे से सिल दे, लेकिन बस दूसरा सिरा नहीं मिला तो नहीं ही मिला। बहुत देर तक रात के अँधेरे को नज़रों से सहलाती रही, फिर बेचैनी बढ़ने लगी तो तकिए को पलंग की पुश्त पर टिका कर उस पर अपना सिर डाल दिया। खिड़की का पल्ला खोल लिया, बाहर से हवा का झोंका-सा आया। पूरा-बड़ा और चमकीला चाँद होने के बावजूद अँधेरा उसे घना लगा। शायद भीतर का अँधकार फैलकर बाहर आ गया है उसका....। उसने बीती रात को फिर से बुहारा था, कोई फाँस यदि चुभी है, ठहरी है तो उभरकर हाथ आए, कोई सिरा तो मिले अपनी बेचैनी का। लेकिन नहीं जीवन में सब कुछ अपनी जगह पर सही और अपनी गति से चल रहा है। न कोई रूकावट है न कोई खराश... तो फिर ये सब आया कहाँ से और क्यों? वैसे ये उसके लिए कुछ नया भी नहीं है। थोड़े बहुत अंतराल के बाद कमोबेश ये बेचैनी सिर उठाती ही रहती है। कोई बीज है जो मर-मर कर भी नहीं मरता है। बार-बार जी उठता है। ये न तो किसी घटना से जुड़ता है और न ही किसी विचार से... बल्कि विचार की प्रक्रिया तो बेचैनी के बाद की घटना है... तो। सालों साल से ये उसके साथ है, हर कोशिश के बाद भी। अब तो उसने इसे स्वीकार भी कर ही लिया है। लेकिन चाहे दर्द के साथ जीना सीख लें, लेकिन दर्द तो फिर भी दर्द होता है न...। दो-तीन दिनों से उसे सब कुछ उखड़ा-उखड़ा-सा महसूस हो तो रहा था, आहट बहुत करीब आ रही थी, लेकिन जानती थी कि जो सामने होगा उसे तो हर हाल सहना ही है...। वो जहाँ टँगी है, वहाँ से कोई रास्ता कहीं नहीं जाता है। बस अँधेरे कमरे में बाहर निकलने के लिए सिर भड़ीक रही है।
आसमान का रंग काले से जरा साँवला होने लगा है, सूरज के आने की सूचना है। फिर से वही दिन, वही जीवन... कल्पना भर से उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। सुबह हो चुकी थी... सुबह की ताजे-मन उजाले में उसकी आँखों के सामने पड़ोसी का लॉन था। मन ने तय किया था आज... कहीं जाना नहीं है। नीम की, अमरूद की डाल पर तोते का जोड़ा बैठा हुआ था। काली छोटी-सी चिड़िया तार पर बैठी हुई थी। गर्दन हिलाने पर उसके पंखों से मोरपंखी रंग झलक रहा था, ऐसे-जैसे वो रंग छलक रहा हो। फाख़्ता घास पर यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ फुदकती फिर रही थी। खिड़की से लगी दीवार पर चींटियाँ कतार में आ-जा रही थी।
लड़ते-लड़ते वह थकने लगी, तभी उसे याद आया कि कहीं उसने पढ़ा है, जो कुछ परेशान करे उससे लड़ें नहीं, उसके साथ खुद को छोड़ दें... हाँ, ये भी सही है। उसने आँखें मूँद ली और छोड़ दिया खुद को उस भँवर में, जिससे वह पिछले कई दिनों से लड़ रही थी, डूबने के लिए मुक्त कर दिया... अपने आप को। इतनी गाफिल हो गई कि उसे इस बात का भी अहसास नहीं रहा कि आखिर वह पहुँची कहाँ है?
भीतर के भँवर में डूब-उतराते भी थकान होने लगी थी। वो बस डूब जाना चाहती थी, लेकिन संभव ही नहीं हो पा रहा था। एकाएक उसे लगा कि उसे शिद्दत से मरने की तलब लगने लगी है। उसने खुद को छोड़ दिया था... शांत... निश्चेष्ट...। चेतना उसके शरीर पर भटकने लगी। और उसका मन उसका पीछा करने लगा... पैर के अँगूठे से चली तो पूरे शरीर का चक्कर लगा लिया... फिर लौटी... फिर से यात्रा पर निकली, इस बार गिरफ्त छूट गई, वो न जाने कहाँ गुम हो गई... उसकी आँखें खुली थी... जाने वो जिंदा भी थी या... !



14/06/2014

आसान नहीं है पुरुष का पिता होना


सोच रहा हूं कि मुझे ये सब क्यों कहना चाहिए? क्यों मुझे खुद को खोल देना चाहिए...? फिर मुझे ही क्यों कहना चाहिए? क्यों बताना चाहिए ये सब... लेकिन फिर सोचता हूं कि शायद जो मुझे लगा वह और भी पिताओं को लगता होगा शायद उन्हें ये अहसास नहीं होता होगा। या अहसास भी होता होगा, लेकिन कह पाने लायक शब्द नहीं हुआ करते होंगे। जो भी हो बहुत सोच-समझ कर मैंने ये तय किया कि आज मैं बताऊंगा कि पिता भी बच्चों से प्यार करता है, पिता के सीने में भी दिल हुआ करता है और उसे भी बच्चे का दुख-सुख व्यापता है। पिता को ऐसे ही खारिज नहीं किया जा सकता है। सिर्फ इसलिए कि वह कहता नहीं है, रोता नहीं है। बताता नहीं है कि वो अपने बच्चों से कितना प्यार करता है... वो यह नहीं जता पाता कि बच्चे के सुख-दुख में वह भी हंसता-रोता है... बस दिखा नहीं पाता... क्योंकि ये उसके लिए वर्जित है। फिर भी क्यों बताना चाहिए मुझे कि आसां नहीं होता पिता होना। इसलिए एक पुरुष का पिता होना भी आसान नहीं होता।
क्योंकि मुझे तो हमेशा से सिखाया है ज़ब्त करना... अपने दुख-सुख, भावनाएं, संवेदना... सब कुछ को बस अपने मन के तहखाने में जमा करके रखना। पुरुष हूं तो मुझे रोना नहीं है, पुरुष हूं तो मुझे संतुलित रहना है। पुरुष होने का भी अनुशासन होता है शायद ही कोई जानता हो। जिस तरह से स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है, उसी तरह पुरुष भी पैदा नहीं होता, बनाया जाता है। कोई माने या न माने... पुरुष होने की बाध्यता, पुरुष होने की मजबूरी और अपने पुरुष होने को जीवन भर निभाना आसान नहीं होता। पुरुष होने को सहना आसान नहीं होता। क्योंकि पुरुष होने के साथ-साथ वो इंसान भी होता है, रिश्तों से बंध्ाा होना, उन्हें जीना, सेना फिर भी उससे अलग रहना... यकीन मानिए आसान नहीं होता है। उससे उम्मीद की जाती है कि वह खुद को मजबूत सिद्ध करे... दृढ़, क्षमतावान और ताकतवर रहे। और ये भी कि पिता होकर पुरुष होना और भी मुश्किल है। जानता हूं कि तुम्हें ये हास्यास्पद लगेगा, क्योंकि हरेक ने ये जाना है कि पुरुष होकर ही पिता हुआ जा सकता है, लेकिन शायद ये नहीं समझा कि पुरुष होकर पिता होना कितना मुश्किल है।
जानता हूं कि मां की भूमिका, उसका त्याग, समर्पण और पीड़ा पिता से ज्यादा होती है। ये प्राकृतिक है, स्वाभाविक है, क्योंकि मां होने का वरदान उसे ही मिला है...पता नहीं वो मां होने की हैसियत रखती है इसलिए, बच्चों के जीवन में उसकी भूमिका पहली और स्पष्ट है या फिर उसकी भूमिका पहली है, इसलिए उसका होना पिता से ज्यादा महत्वपूर्ण और ज्यादा गरिमामय है। इसलिए वह पूजनीय भी है। लेकिन कभी पिता की तरफ भी ध्यान दें।
ये सही है कि पिता बच्चे को गर्भ में नहीं रखता है। वो सारी परेशानियां खुद नहीं उठाता जो मां बच्चे को गर्भ में रखते हुए उठाती है। ये भी सही है कि पिता को प्रसव-पीड़ा नहीं सहनी होती है... इसलिए स्त्री होने का मतलब पुरुष की तुलना में ज्यादा है। लेकिन पिता होने की पीड़ा भी तो कम नहीं है।
पहली बार बता रहा हूं कि मुझे भी दुख होता था, जब फुटबॉल खेलते हुए तुम्हारे घुटने छिलते थे या साइकल सीखते हुए जब तुम्हारा पैर पहिए में फंसा था। तुम्हें याद है छुटकी... तब तुम्हारा पैर का तलुवा कट गया था और बहुत खून बहा था। मैं दौड़कर तुम्हें डॉक्टर के पास लेकर गया था, टांके लगे थे। तुम और तुम्हारी मां बेतहाशा रो रहीं थीं। मेरे भीतर भी कुछ ऐसा हो रहा था जो बस फटकर निकलने को आतुर था। लेकिन मैंने रोका था... मैं नहीं रो सकता था। क्योंकि तुम्हारी मां रो रही थी। मैं कैसे रो सकता था? लेकिन क्या तुम्हें ऐसा लगा था कि तुम्हारा दर्द बस तुम्हारा था? शायद तुझे याद न हो, लेकिन उस शाम मैं खाना नहीं खा पाया था। बार-बार डॉक्टर के यहां तेरा दर्द से चीखना और पैर से बहता खून याद आ रहा था।
और तब... जब तू पहली बार पीएमटी में असफल हुई थी। हमने तुझे नींद की गोलियां देकर सुलाया था, लेकिन फिर भी रात के हर घंटे मैं उठकर तेरे कमरे में आया हूं... तुझे गहरी नींद में सोता देखता रहा हूं। तेरे सिरहाने बहुत देर तक बैठा रहा हूं।
मैं बंध्ाा रहा हूं अपनी ही सामाजिक छवि में... लेकिन अब नहीं बंध्ाा रह सकता हूं। रोका है हर बार खुद को... तब भी जब उस नाकारा लड़के ने तेरा दिल तोड़ा था। तब भी जब तेरा अपनी बेस्ट फ्रेंड से झगड़ा हुआ है। तुझे लगता होगा कि मैं बस हर उस वक्त तुझे देखता रहा होऊंगा जब तुझे मेरी सख्त जरूरत थी। लेकिन ऐसा नहीं है बेटा... हर उस वक्त मैं तेरा साथ था... बस मैं जाहिर नहीं कर पाया था, नहीं बता पाया था। और शायद कोई कभी ये समझ पाए कि ज़ब्त करने में... सब्र करने में कितनी पीड़ा होती है।
नहीं बंध्ाा रह पाऊंगा। मैं पुरुष होने से आज़िज आ चुका हूं, मैं पिता होना चाहता हूं... बस पिता... विशुद्ध पिता। तू बहुत उत्साह से अपनी शादी की तैयारियां कर रही है। मुझे भी खुशी है, उत्साह भी... लेकिन बस ये विचार ही मुझे उदास कर रहा है कि तू चली जाने वाली है और गाहे-ब-गाहे मेरी आंखें छलक पड़ती है। तेरी मां मुझे आश्चर्य और फिर प्रेम से देखती है। समझाती है... कई बार यूं भी कहा कि अरे पिता होकर रोते हो... मैं पूछता नहीं हूं, मगर पूछना चाहता हूं कि 'पिता क्यों नहीं रो सकता?" या 'पिता को क्यों नहीं रोना चाहिए?" क्या इसलिए कि उसने पुरुष होने का गुनाह किया है? या इसलिए कि वह पुरुष होकर पिता भी होना चाहता है।
बेटा फिर कहता हूं आसान नहीं है पुरुष होकर पिता होना। मगर मैं पुरुष होते-होते थक गया हूं और बस पिता होना चाह रहा हूं। कह लूं पिता होता जा रहा हूं। मैं अपने पिता होने को नहीं रोक सकता हूं, रोकना भी नहीं चाहता हूं। मैं बस बदल रहा हूं और सच पूछो तो बदलना चाहता भी हूं। अपनी भावनाओं को मैं पुरुषत्व की कैद से मुक्त करना चाहता हूं।
मैं मुक्त होकर पिता होने का आनंद लेना चाहता हूं, मैं मुक्त होकर तेरे साथ रोना, हंसना, गाना-खेलना और उड़ना चाहता हूं। मैं मुक्त हो जाना चाहता हूं पुरुष होने की उस केंचुल से, जिसमें मेरी भावनाएं घुटती हैं, जिसमें मेरा मन कुम्हलाने लगता है, जिसमें मेरा जीवन कण-कण कर खिर रहा है। उसमें वजूद रेशा-रेशा कर उध्ाड़ रहा है। मैं पूरा होना चाहता हूं। मैं तुम्हारी मां की तरह ही तुममें होना चाहता हूं। मैं खुलकर तुम्हें गले लगाना चाहता हूं। चाहता हूं कि जिस तरह तू अपनी मां की गोद में सिर रखकर सोती या रोती है, उसी तरह मैं भी अपनी गोद में मैं तुझे रूलाना-हंसाना और सुलाना चाहता हूं। चाहता हूं कि मैं तेरे बालों में तेल लगाऊं और तेरी सफलता पर तेरी नज़र उतारूं। मैं क्यों नहीं कर सकता ये सब...? इसलिए कि मैं पिता होकर पुरुष हूं... मैं बस पिता होना चाहता हूं।
इसलिए तेरे साथ हंसना-रोना, गाना-मुस्कुराना चाहता हूं... मैं पुरुष होने से मुक्त होना चाहता हूं, मैं बस...

03/05/2014

रचना नहीं, रचना-क्रम आनंद है



महीने का ग्रोसरी का सामान खरीदने गए तो रेडी टू ईट रेंज पर फिर से एक बार नज़र पड़ी। आदतन उसे उलट-पलट कर देखा और फिर वहीं रख दिया जहाँ से उठाया था। एकाध बार लेकर आए भी, बनाया तो अच्छा लगा लेकिन साथ ही ये भी लगा कि कुछ बहुत मज़ा नहीं आया। आजकल हिंदी फिल्मों में वो एक्टर्स भी गा रहे हैं, जिनके पास गाने की जरा भी समझ नहीं है। जब उनके गाए गाने सुनते हैं तो लगता ही नहीं है कि ये गा नहीं पाते हैं। बाद में कहीं जाना कि आजकल आप कैसे भी गा लो, तकनीक इतनी एडवांस हो गई है कि उसे ठीक कर दिया जाएगा। अब तो चर्चा इस बात की भी हो रही है कि जापान ने ऐसे रोबोट विकसित कर लिए हैं जो इंसानों की तरह काम करेंगे। मतलब जीवन को आसान बनाने के सारे उपाय हो रहे हैं। ठीक है, जब जीवन की रफ्तार और संघर्षों से निबटने में ही हमारी ऊर्जा खर्च हो रही हो तो जीवन की रोजमर्रा की चीजें तो आसान होनी ही चाहिए। हो भी रही है। फिर से बात बस इतनी-सी नहीं है।
पिछला पढ़ा हुआ बार-बार दस्तक देता रहता है तो अरस्तू अवतरित हो गए... बुद्धि के काम करने वालों का जीवन आसान बनाने के लिए दासों की जरूरत हुआ करती है, तब ही तो वे समाज उपयोगी और सृजनात्मक काम करने का वक्त निकाल पाएँगे। सही है। जीवन को आसान करने के लिए भौतिक सुविधाओं की जरूरत तो होती है और हम अपने लिए, अपने क्रिएशन के लिए ज्यादा वक्त निकाल पाते हैं। लेकिन जब मसला सृजन-कर्म से आगे जाकर सिर्फ सृजन के भौतक पक्ष पर जाकर रूक जाता है तब...?
विज्ञान, अनुसंधान, व्यापार और तकनीकी उन्नति ने बहुत सारे भ्रमों के लिए आसमान खोल दिया है। फोटो शॉप से अच्छा फोटो बनाकर आप खुद को खूबसूरत होने का भ्रम दे सकते हैं, ऐसी रिकॉर्डिंग तकनीक भी आ गई है, जिसमें आप गाकर खुद के अच्छा गायक होने का मुगालता पाल सकते हैं। अच्छा लिखने के लिए अच्छा लिखने की जरूरत नहीं है, बल्कि अच्छा पढ़ने की जरूरत है... कॉपी-पेस्ट करके हम अच्छा लिखने का भ्रम पैदा कर सकते हैं। इसी तरह से रेडी-टू-ईट रेंज... रेडीमेड मसाले... आप चाहें तो हर कोई काम आप उतनी ही एक्यूरेसी से कर सकते हैं, जितनी कि लंबे रियाज से आती है। इस तरह से तकनीक और अनुसंधान आपको भ्रमित करती हैं और आप चाहें तो इससे खुश भी हो सकते हैं। तो अच्छा गाना और अच्छा गा पाना... अच्छा खाना बनाना और अच्छा खाना बना पाने के बीच यूँ तो कोई फर्क नज़र नहीं आता है। फर्क है तो... बहुत बारीक फिर भी बहुत अहम...। यहाँ रचनाकार दो हिस्सों में बँट जाता है – एक जो अपने लिए है... अच्छा गा पाने वाला या फिर अच्छा खाना बना पाने वाला और दूसरा जो लोगों के लिए है अच्छा गाने वाला और अच्छा खाना बनाने वाला। फाइनल प्रोडक्ट बाजार का शब्द है...।
लेकिन सवाल ये है कि आप जीवन से चाहते क्या हैं? यदि आपका लक्ष्य सिर्फ भौतिक उपलब्धि है, तो जाहिर है आप सिर्फ दूसरों के लिए जी रहे हैं। आप दूसरों को ये बताना चाहते हैं कि आप कुछ है, जबकि आप खुद ये जानते हैं कि आप वो नहीं है जो आप दूसरों को बताना चाहते हैं। दूसरा और सबसे महत्त सत्य.... सृजन की प्रक्रिया सुख है। बहुत हद तक सृजनरत रहने के दौरान हम खुद से रूबरू होते हैं। रचना-क्रम अपने आप में खुशी है, सुख है, संतोष है। ऐसा नहीं होता तो लोग बिना वजह रियाज़ करके खुद को हलकान नहीं कर रहे होते। पिछले दिनों किसी कार्यक्रम के सिलसिले में शान (शांतनु) शहर में आए, अपने इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि आजकल गाने में वो मज़ा नहीं है, पूछा क्यों तो जवाब मिला कि आजकल आवाज और रियाज़ से ज्यादा सहारा तकनीक का हुआ करता है। आप कैसा भी गाओ... तकनीक उसे ठीक कर देंगी। अब शान तो खुद ही अच्छा गाते हैं, तो उन्हें इससे क्यों तकलीफ होनी चाहिए...? वजह साफ है, इंसान सिर्फ अंतिम उत्पाद के सहारे नहीं रह सकता है, उसे उस सारी प्रक्रिया से भी संतोष, सुख चाहिए होता है, जो उत्पाद के निर्माण के दौरान की जाती है। ऐसा नहीं होता तो अब जबकि जीवन का भौतिक पक्ष बहुत समृद्ध हो गया है, कोई सृजन करना चाहेगा ही नहीं... हर चीज तो रेडीमेड उपलब्ध है। न माँ घर में होली-दिवाली गुझिया, मठरी, चकली बनाएँगी न सर्दियों में स्वेटर बुनेंगी। भाई पेंटिंग नहीं करेगा और बहन संगीत का रियाज़। असल में यही फर्क है, इंसान और मशीन होने में, मशीन सिर्फ काम करती है, इंसान को उस काम से सुख भी चाहिए होता है। जो मशीन की तरह काम करते हैं, वे काम से बहुत जल्दी ऊब जाते हैं और बहुत मायनों में उनका जीवन भी मशीन की तरह ही हो जाता है, मेकेनिकल।
साँचे से अच्छी मूर्तियाँ बनाई तो जा सकती है, लेकिन उससे वो संतोष जनरेट नहीं किया जा सकता है, जो एक मूर्तिकार दिन-रात एक कर मूर्ति बनाकर करता है। सृजन शायद सबसे बड़ा सुख है, उसकी पीड़ा भी सुख है। उससे जो बनता है चाहे उसका संबंध दुनिया से है, मगर बनाने की क्रिया में रचनाकार जो पाता है, वह अद्भुत है, इस दौरान वह कई यात्राएँ करता है, बहुत कुछ पाता है, जानता है और जीता है। यदि ऐसा न होता तो कोई भी स्त्री माँ बनना नहीं चाहती, क्योंकि उसमें पीड़ा है। हकीकत में जो हम सिरजते हैं, हमारा उससे रागात्मक लगाव होता है, वो प्यार होता है और उसी प्यार को हम दुनिया में खुश्बू की तरह फैलाना चाहते हैं।
हालाँकि ऐसा भी नहीं है कि इंसान सृजन से सुख पाए ही... ऐसा होता तो दुनिया में रचनाएँ चुराने जैसे अपराध नहीं होते। जो रचनाकार होने का भ्रम पैदा करना चाहते हैं, लेकिन रच पाने की कूव्वत नहीं रखते हैं, वे अक्सर ऐसा करते हैं। तो फिर वे ये जान ही नहीं सकते हैं कि रचनाकार होने से ज्यादा महत्त है रचनारत रहना। इसमें भी जिनका लक्ष्य भौतिकता है, वे सिर्फ रचना पर ध्यान केंद्रित करेंगे, लेकिन जिनका लक्ष्य आनंद है, वे उन सारे चरणों से गुजरेंगे जो रचना के दौरान आते हैं... क्योंकि सुख वहाँ है। सृजन के बाद भौतिकता बचती है, क्योंकि रचना के पूरे हो जाने के बाद वो दूसरी हो जाती है, वो रचनाकार के हाथ से छूट जाती है। तब उसे दूसरों तक पहुँचना ही चाहिए, लेकिन जब रचना के क्रम में रहती है, तो वह रचनाकार की अपनी बहुत निजी भावना और संवेदना होती है। सुख और संतुष्टि रचनारत रहने में... तभी तो रचनाकार किसी रचना के लिए पीड़ा सहता है, श्रम और प्रयास करता है, क्योंकि वही, सिर्फ वही जान सकता है कि जो आनंद रचने की प्रक्रिया में है, वो रचना पूरी करने में नहीं है।
इस तरह से कलाकार जब सृजन के क्रम में रहता है, तब वह ऋषि होता है और जब उसका सृजन पूरा हो जाता है, तब वह दुनियादार हो जाता है और दोनों का ही अपना सुख है, अपनी तृप्ति है। तभी तो जो रेडीमेड पसंद करते हैं, वो बस भौतिक दुनिया में उलझकर रह जाते हैं और नहीं जान पाते कि आनंद क्या है?






23/03/2014

होने का भ्रम


जाने शोर से नींद टूटी थी या फिर नींद टूटी थी तो शोर महसूस हुआ था... लेकिन अपरूपा जाग गई थी। आँखे बंद करके ही उसने उस शोर को सुना था सोचा था ये शोर कैसा...? जागते मन और सोती आँखों के बीच उसे ये गफ़लत हो गई थी कि वो कहाँ है...? थोड़ा घबराकर कर आँखें खोली थी, परिवेश अनजाना था... ओह... मैं तो घर में नहीं हूँ। थोड़ी संयत हुई थीं, नींद के टूटे सिरे को जोड़ने की कोशिश करने लगी थी, लेकिन जुड़ना तो ठीक, सिरा मिला ही नहीं था। बहुत देर तक आँखों पर तने उस फूस के छप्पर को देखती रही थी... समुद्र की लहरों की आवाज लगातार आ रही थी। इतने अँधेरे में घड़ी देखना संभव नहीं था, लेकिन ये तय था कि अभी सवेरा होने में देर है। उसने धीरे से अपना बिस्तर छोड़ा... उतनी ही एहतियात से पैरों में स्लीपर और कंधे पर स्टोल डालकर कमरे से बाहर आ गई थी। संभलकर एहतियात से कमरे का दरवाजा उढ़काया था और निकल पड़ी थी समंदर के किनारे।
समंदर अँधेरा ओढ़कर संवलाया सा डोल रहा था। जहाँ वह खड़ी थी, वहाँ की रेत थोड़ी गीली-गीली हो रही थी। थोड़ा चलने के बाद ही उसे लगा कि रेत में नंगे पैर चलना ज्यादा सरल है... उसने अपनी स्लीपर वहीं छोड़ दी थी और चलने लगी थी... गीली-ठंडी रेत पैरों के तलवों को राहत दे रही थी... कई दिनों की जम चुकी बेचैनी थोड़ी नर्म होने लगी थी, कोई साथ जो नहीं था। क्या-क्या नहीं उसने अपने भीतर रोक रखा है... खुद से निराश है बहुत... बूर रखा है, उसने वह सोता जहाँ से उमड़कर आती है भावनाएँ... अपेक्षाएँ, गुस्सा, आँसू, संवेदनाएँ... और भी बहुत कुछ। पता नहीं शायद बेचैनी की वजह वही हो।
वह चलती चली जा रही थी... अकेले, दिशाहीन, लक्ष्यहीन...। उधेड़बुन है गहरी... क्या बेचैनी है... यही न कि न खुद अपनी अपेक्षाओं पर खरी उतर पा रही है और न ही दूसरों की... बस अपेक्षाओं के समंदर में डूब उतरा रही है।
दूर क्षितिज पर आसमान का रंग बदलता नजर आ रहा था। समंदर के उस छोर से सूरज ने झाँकना जो शुरू कर दिया था। इक्का-दुक्का विदेशी जोड़े बीच पर टहल रहे थे और कुछ युवा रेत पर ही आसन लगाए ध्यान लगा रहे थे। बहुत दिनों से वह खुद के ‘न-होने’ के अहसास से घिरी हुई है। पता नहीं कहाँ जाकर अटक गई है कि उसे खुद का अहसास ही नहीं रहा… इतनी गहरी छटपटाहट है कि उसका सिरा ही नहीं मिलता। जिस्मानी वजूद से अलग उसे अपने होने का कोई और निशान नहीं मिलता, आजकल...। उसे लगने लगा है कि वो अपने देखते-ही-देखते एक भ्रम में तब्दील होती जा रही है। उसने झुककर रेत को हथेली में भरा था... लगा कि उसका अपना होना भी बस इसी रेत की तरह भुरभुरा हो रहा है, बिखर रहा है। कुछ भी ऐसा नहीं है जो उसे नमी दे। अपनी उलझनों के सिरे उसे खुद ही नहीं मिलते, कोई क्या उसकी मदद करेगा। अब तो मदद की उम्मीद से भी डर लगने लगा है। उसकी आँखें डबडबा आई थी... बहुत दिनों के बाद उसकी आँखों में नमी उतरी थी... उसने अपने इर्द-गिर्द देखा... कोई देख तो नहीं रहा है, उसने खुद को छोड़ दिया था, बहने के लिए। गीली आँखें बहने लगी थी, होंठ कस गए थे। कोई भी नहीं है संभालने के लिए... वो बहा सकती है खुद को, ऐसे ही वह खुद को खतम कर रही है... यूँ ही खत्म हो जाना है, कहीं कुछ भी इकटठा नहीं होगा... कोई इकट्ठा नहीं करेगा। उसे बहना ही है, इसी तरह अकेले ही विसर्जित होना है... इस नदी को कोई बाँध नहीं रोक रहा है... किसी ने बनाया ही नहीं है, उसे बहकर खारे पानी में ही मिलना है।
आखिर उसने तय जो किया है कि किसी के सामने नहीं रोना है। इसी निश्चय ने उसके भीतर पर्त-दर-पर्त बेचैनी बुनी है। घुटने के बल बैठकर उसने फलक पर उभर आए सूरज की तरफ देखा था। वह रो रही है... निशब्द... आँसू बह रहे हैं। बह रही है बिना बाँध के खारे पानी की तरफ... यही उसकी नियति है, हर उस की, जिसे रोकने... थामने के लिए कोई बाँध नहीं है उसे बहना ही है। बहा चुकी थी, वह जितनी बची थी, अब वह लौट रही है, जहाँ उसकी स्लीपर पड़ी थी, वहीं बिहाग चाय का कप लिए उसका इंतजार कर रहा था। वो मुस्कुराई थी... आँखें बंद कर कुछ बुदबुदाई एक संकल्प उसने उगते सूरज और चंचल लहरों को दखेकर किया था और बिहाग के बढ़े हुए हाथ को खींच लिया था। बहुत दिनों बाद उसने मुस्कुराती हुई सुबह देखी थी। कोई निश्चय उसके भीतर जगमगाया था... झिलमिलाया था। फिर से उसने सूरज की तरफ देखा था... इस अपेक्षा में कि ये तो मदद करेगा ही...

04/12/2013

प्रकृति का पहला कलाकार बच्चा…!



इसी तरह सर्दियों की शाम थीं, आज से १३-१४ साल पहले नवंबर-दिसंबर में कड़ाके की ठंड पड़ने लगती थीं। इसी तरह की एक शाम को दोस्त की ढाई-तीन साल की बेटी घर आई तो फिश-टैंक में मछलियों को देखकर मासूम कौतूहल (कौतूहल तो मासूम ही होता है...) से कहा – 'अरे, मछलियां नहा रही हैं... ममा इन्हें मना करो, नहीं तो बीमार हो जाएंगी।' कई दिनों तक ये मासूमियत हमारी रोजमर्रा की बातचीत में शामिल रही। अब तो वो बच्ची भी अपनी बातों को बेवकूफी समझ कर दिल खोलकर हँसती होगी।
एक और दोस्त की बेटी अपने पिता से बेहद प्यार करती है। मौसी को अपनी शादी में नए कपड़े और गहने पहने देखकर उसने भी शादी की रट पकड़ी... पूछा किससे करना है तो जवाब है 'पापा से'। जाहिर है... जिससे प्रेम है, उसी के तो साथ रहना चाहेंगे। उसके तईं शादी प्रेम का बायप्रोडक्ट है। घर के सामने बने रावण का दहन, उसके लिए कुछ अजीब है। भई रावण को सीता पसंद है यदि वो उसे ले गया तो इसमें उसे मार डालने की क्या तुक है...? ये उसकी समझ में नहीं आता है।
पिछले दिनों मां के घर गई तो भतीजे ने इस बार हमारे साथ बैग देखा। मां से कहता है – 'लगता है इस बार फई दो-एक दिन रुकने वाली है।' मां ने कहा, पूछ ले। उसने सीधे ही पूछ लिया 'आप हमारे घर रूकने वाली हो...!' मां ने उसे डांटा... ऐसे नहीं पूछते हैं, लेकिन उसे समझ नहीं आया कि ऐसा क्यों नहीं पूछा जा सकता है?
एक और दोस्त का तीन साल का बेटा लोगों को रंगों से पहचानता है... अरे नहीं, गोरा-काला-भूरा-पीला नहीं... जो रंग पहने हैं उन रंगों से। यदि ग्रीन कलर पहना है तो 'ग्रीन अंकल' और पर्पल पहना है तो 'पर्पल अंकल', 'येलो आंटी', 'ब्राउन भइया' और 'ब्लू दीदी'...। कितना मजेदार है...?
बच्चे प्रकृति के बाद प्रकृति की सबसे प्राकृतिक रचना है। सोच से एकदम नवीन और व्यवहार में एकदम अनूठे। नहीं जानते हैं कि आग से जल जाते हैं और पानी में डूब जाते हैं। उनके तईं मछलियां उड़ सकती हैं और पंछी तैर सकते हैं। आसमान पर टॉफी उगाई जा सकती होगी और जमीन पर तारे जडे जा सकते होंगे। वो नहीं जानते हैं कि अस्पताल में, मय्यत में और फिल्म में जाकर चुप बैठना होता है। वे नहीं जानते हैं कि कौन पिता का बॉस है, जिससे ये नहीं पूछना है कि 'आप कब जाएंगे हमारे घर से...?'
जिसे हमारी दुनिया में 'आउट ऑफ द बॉक्स' सोचना कहते हैं, वो असल में बच्चों से बेहतर कोई नहीं कर सकता है। लेकिन हमें आउट ऑफ द बॉक्स सोचने वालों की जरूरत ही कहाँ हैं...? हमारा पूरा सिस्टम पुर्जों से बना है और इसे चलाने के लिए हमें पुर्जों की जरूरत है। बच्चे अपने प्राकृतिक रूप में इस सिस्टम का हिस्सा नहीं हो सकते हैं, इसलिए हम उन्हें शिक्षित करते हैं, संस्कारित करते हैं और दुनियादार बनाते हैं। जबकि बच्चे अपने मूल रूप में सारी दुनियादारी से दूर हैं, लेकिन हमारी सारी व्यवस्था बच्चों को दुनियादार बना छोड़ने की है। आखिर तो इससे ही नाम-दाम और काम मिलेगा...।
एक बच्चे के सामने कीमती हीरा रखा हो और साथ में प्लास्टिक का रंग-बिरंगा खिलौना... वो उस रंग-बिरंगे खिलौने पर ही हाथ मारेगा। कहा जा सकता है कि बच्चा इस सृष्टि का पहला कलाकार है। वह सृजनात्मक सोच सकता है, कर सकता है, जी सकता है। उसका सौंदर्य बोध बड़ों को मात करता होता है।
ये सब आज इसलिए कि हाल ही में मैंने 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' पढ़ी। लेखक ने एक जगह लिखा है कि 'नदी चट्टानों से रगड़कर बहती है तो ज्यादा उजली लगती है... जैसे नदी नहाकर निकली हो (नदी नहा रही है!)...।' लगा कि आखिर लेखक ने 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' जैसा सपाट नाम अपनी किताब के लिए क्यों चुना...??? क्या 'नदी नहा रही है!' जैसा काव्यात्मक शीर्षक उन्हें पसंद नहीं आया...? असल में लेखक ये जानता है कि ये गद्य है... और 'नदी नहा रही है!' शीर्षक काव्यात्मक है...। कभी लगता है कि जान लेना और अनुशासन का हिस्सा हो जाना इंसान के भीतर के कलाकार को मार देता है। और यहीं बच्चे वयस्कों से बाज़ी मार ले जाते हैं। तो अच्छे से जीने के लिए तो बच्चा बने रहना अच्छा है ही, जीवन को रंगों, धुनों, शब्दों, भावों और प्रकृति से सजाना है तब भी बच्चे बने रहना अच्छा है...। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि सच्चा कलाकार बच्चा होता है। या यूँ भी कि बच्चा ही सच्चा कलाकार होता है... मर्जी आपकी...।

27/10/2013

दीपावली की 'ट्रिकल-डाउन-इकनॉमी'



बचपन में दीपावली को लेकर बहुत उत्साह हुआ करता था, सब कुछ जो दीपावली पर होता था, बहुत आकर्षक लगा करता था। साफ-सफाई के महायज्ञ में छोटा-छोटा सामान ही यहाँ-से-वहाँ कर देने भर से लगता था कि कुछ किया। तब छुट्टियाँ भी कितनी हुआ करती थी, दशहरे की महाअष्टमी से शुरू हुई छुट्टियाँ भाई-दूज तक चलती थी। इस बीच घर में जो कुछ दीपावली के निमित्त होता था, वो सब कुछ अद्भुत लगता था। याद आता है जब घर में सारे साफ-सफाई में व्यस्त रहते थे, तब एक चाची आया करती थी कपास की टोकरी लेकर...। चूँकि वे मुसलमान थी, इसलिए आदर से हम उन्हें चाची कहा करते थे। वे दो कटोरी गेहूँ और एक कप चाय के बदले कपास दिया करती थीं और उसी से दीपावली पर जलने वाले दीयों के लिए बाती बनाई जाती थी। उन दिनों रेडीमेड बाती का चलन नहीं था। ताईजी शाम के खाने के वक्त लकड़ी के पाटे पर हथेली को रगड़-रगड़ कर बाती बनाया करती थीं और माँ उन्हीं के सामने बैठकर रोटियाँ सेंका करती थी। दोनों इस बात की प्लानिंग किया करती थीं कि कब से दीपावली के पकवान बनाना शुरू करना है, और किस-किस दिन क्या-क्या बनाया जाना है और सुबह-शाम के खाने की कवायद के बीच कैसे इस सबको मैनेज किया जा सकता है।
कुछ चीजें अब जाकर स्पष्ट हुई हैं। एक बार दीपावली के समय सूजी और मैदे की किल्लत हुईं, इतनी कि पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) से बेचा गया। आज सोचो तो लगता है कि कालाबाजारी हुई थी, जैसे कि अभी प्याज़ की हो रही है। जब लगा कि पीडीएस से इतना नहीं मिल पाएगा तो ताईजी ने खुद ही घर में बनाने की ठानी। तब पहली बार मालूम हुआ कि सूजी, मैदा, आटा सब आपस में भाई-बहन हैं। उन्होंने गेहूँ को धोया, फिर सुखाया और फिर चक्की पर पीसने के लिए भेजा, मैदे के लिए एकदम बारीक पिसाई और सूजी के लिए मोटी पिसाई की हिदायत देकर...। दीपावली के पहले तीन दिनों में इतना काम हुआ करता था और इतनी बारीक-बारीक चीजें करनी हुआ करती थी कि तब आश्चर्य हुआ करता था, कि ये महिलाएँ इतना याद कैसे रख पाती हैं। तमाम व्यस्तता के बीच भी। हम बच्चे जागते इससे पहले ही घर के दोनों दरवाजों पर रंगोली सजी मिलती थीं। रंग, तो जब हम बाजार जाने लगे तब घर में आने लगे, इससे पहले तो हल्दी, कूंकू और नील से ही रंगोली सजा ली जाती थी।
दीपक, झाड़ू और खील-बताशे खरीदना शगुन का हिस्सा हुआ करता था। चाहे घर में कितने ही सरावले (हाँ, ताईजी दीपक को सरावले ही कहती थीं, जाने ये मालवी का शब्द है या फिर गुजराती का) हो फिर भी शगुन के पाँच दीपक तो खरीदने ही होते थे। इसी तरह घर में ढेर झाड़ू हो, लेकिन पाँच दिन गोधूली के वक्त झाड़ू खरीदना भी शगुन का ही हिस्सा हुआ करता था। घर में चाहे कितने ही बताशे हो, पिछले साल की गुजरिया हो, लेकिन दीपावली पर उनको खरीदना भी शगुन ही हुआ करता था। कितनी छोटी-छोटी चीजें हैं, लेकिन इन सबको दीपावली के शगुन से जोड़ा गया है, तब तो कभी इस पर विचार नहीं किया। आज जब इन पर विचार करते हैं तो महसूस होता है कि दीपावली की व्यवस्था कितनी सुनियोजित तरीके से बनाई गई हैं।
हमने दीपावली के बस एक ही पक्ष पर विचार किया कि ये एक धार्मिक उत्सव है, राम के अयोध्या लौटने का दिन... बस। लेकिन कभी इस पर विचार नहीं किया कि इस सबमें राम हैं कहाँ... हम पूजन तो लक्ष्मी का करते हैं। बहुत सारी चीजें गडमड्ड हो जाती है, बस एक चीज उभरती हैं कि चाहे ट्रिकल डाउन इकनॉमी का विचार आधुनिक है और पश्चिमी भी, और चाहे अर्थशास्त्र के सारे भारी-भरकम सिद्धांत पश्चिम में जन्मे हो, लेकिन हमारे लोक जीवन में व्यवस्थाकारों ने अर्थशास्त्र ऐसे पिरोया है कि वे हमें बस उत्सव का ही रूप लगता है और बिना किसी विचार के हम अर्थव्यवस्था का संचालन करते रहते हैं।
इस त्यौहार के बहाने हम हर किसी को कमाई का हिस्सेदार बनाते हैं। उदाहरण के लिए कुम्हार... अब कितने दीपकों की टूट-फूट होती होगी, हर साल... तो घर में दीपकों का ढेर लगा हुआ हो, लेकिन फिर भी शगुन के दीपक तो खरीदने ही हैं, मतलब कि कुम्हार के घर हमारी कमाई का कुछ हिस्सा तो जाना ही है। आखिर उन्हें भी तो दीपावली मनानी है। ध्यान देने लायक बात ये है कि पारंपरिक तौर पर कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में दीपावली के आसपास ही खरीफ की कटाई होती हैं और बेची गई फसलों का पैसा आता है। किसान इन्हीं दिनों ‘अमीर’ होता है और इसकी अमीरी में से पूरे समाज को हिस्सा मिलता है, वो बचा तो सकता है, लेकिन शगुन के नाम पर कुछ तो उसे खर्च करना ही होगा... क्या इससे बेहतर ट्रिकल डाउन इकनॉमी का कोई उदाहरण हो सकता है? टैक्स के माध्यम से नहीं खर्च के माध्यम से पैसा रिसकर नीचे आ रहा है।
दीपावली मतलब क्षमता के हिसाब से खर्च, साफ-सफाई के सामान से लेकर कपड़े, गहने, बर्तन, उपहार, मिठाई तक तो फिर भी त्यौहार की खुशियों का हिस्सा है, लेकिन बताशे, झाड़ू, कपास और दीपक खुशियों से ज्यादा हमारी सामाजिक जिम्मेदारी का हिस्सा है। इतनी कुशलता से हमने त्यौहारी सिद्धांत बनाए हैं, और वो भी बिना किसी आडंबर के, बिना किसी प्रपोगंडा के। हम भी नहीं जानते हैं कि हम जाने-अनजाने किस तरह से अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को निभाते चले आ रहे हैं, बिना किसी अहम के अहसास के... और वो भी त्यौहारी परंपरा का निर्वहन करके...।
तो दीपावली को इस नजरिए से भी देखें... आखिर हर साल हम वही-वही क्यों करते हैं? इस बार अलग दृष्टि से देखें... बात सिर्फ इतनी-सी है कि अपनी सारी तार्किकता को परे रखकर यदि हम सिर्फ शगुनों ही निभा लें तो उत्सव का आनंद भी उठाएँगे और सामाजिक जिम्मेदारी का पालन भी कर पाएँगें। आखिर
अच्छा है दिल के पास रहे पासबान-ए-अक्ल
कभी-कभी इसे तनहा भी छोड़ दें
नहीं क्या... !

29/09/2013

आकार का सिलसिला...

हम दोनों स्कूल के दिनों की दोस्त हैं। बहुत साल अपनी-अपनी दुनिया की जद्दोजहद और उसकी साज-सवाँर की वजह से संपर्क जिंदा नहीं रख पाए थे। आखिरकार 20 साल बाद जबकि हमारी जिंदगियों में ठहराव आया, हमारे बीच संवाद जागा। उसने पाया कि इन बीच के सालों में मैं अपनी जिंदगी की शक्ल को खूबसूरत बनाने में कामयाब हुई हूँ और ये भी कि घर-परिवार, नाते-रिश्तेदारों और परंपरा-जिम्मेदारियों के बीच उसकी खुद की जिंदगी कहीं, गुमगुमा गई है। और मेरे माध्यम से वो अपनी जिंदगी को ढूँढने की कोशिश करने लगी। उसे लगता है कि मेरे पास विचारों का भंडार है और हर विषय पर मैं उसके ‘फंडे’ क्लीयर कर सकती हूँ।
वो काम के बाद की थोड़ी फुर्सत भरी शाम थी। अगले इश्यू की तैयारी का वक्फा था, जब उसका फोन आया था। उसकी बेटी को संस्कृति पर एक राईट-अप लिखना था। वो इंटरनेट खंगाल चुकी थी और जैसा कि होता है कि इंटरनेट पर अपने काम की चीज़ ढूँढना मतलब भूस के ढेर में से सुई ढूँढना था, तो कई लोगों से इस बीच उसने इस विषय पर चर्चा भी कर ली थी, लेकिन बड़ी गंभीर और गूढ़ बातों के साथ भारतीय संस्कृति के खत्म हो जाने के खतरे तक की बात लोगों ने उसे बताई थी। जाहिर है वो संतुष्ट नहीं हुई थी। आखिर उसने मुझे फोन लगाया। मैंने अपने अनुभव से जाना है कि खुद को सबसे बेहतर मैं संवाद के बीच ही पाती हूँ। कई बार तो खुद वो कह जाती हूँ, जिससे बाद में मैं खुद चौंक जाती हूँ, कि ‘अरे...! ये मैंने कहा है।’ तो बहुत सारी बातें संस्कृति के बारे में करते हुए मैंने उसे कन्क्लूड किया कि संस्कृति कोई पत्थर की लकीर नहीं है, वक्त-जरूरत के हिसाब से उसमें परिवर्तन होते रहते हैं। थोड़ा संस्कृति हमें शेप देती है और थोड़ा हम संस्कृति को शेप देते हैं कुल मिलाकर संस्कृति नदी के पानी की तरह है जो प्रवाहित होती रहती है, इसलिए वह कभी भी पुरानी नहीं होती है, हर वक्त नई होती रहती है। भारतीय संस्कृति के खत्म हो जाने के खतरों का उसका डर भी दूर हुआ और मुझे भी लगा कि मैं उसे बहुत हद तक संतुष्ट करने में कामयाब हुई हूँ। घर लौट रही थी कि चौराहे पर एक अनजान लड़की बस का इंतज़ार करती नज़र आई। पूछा – कहाँ तक जाना है?
गीता भवन चौराहा।
मैंने कहा - बैठो, मैं वहाँ छोड़ देती हूँ।
कई बार मुझे समझाया गया है कि इस तरह मदद का टोकरा लिए हुए अनजान लोगों को मत गाड़ी में बैठाया करो, किसी दिन किसी मुसीबत में फँस जाओगी। आखिर इसी शहर में लड़कियों के अपराध करने की खबरें भी तो आया करती है, लेकिन लगता है कि थोड़ी बहुत सावधानी रखी जाए तो हम इतना तो कर ही सकते हैं। और ये सिलसिला अब तक जारी है, चलेगा, जब तक कि कोई बड़ी ठोकर नहीं खाते।
अगली सुबह दफ्तर जाते हुए जल्दी थी। जिस रास्ते से अमूमन जाती हूँ, बहुत ट्रैफिक नहीं रहता है। बारिश से भीगी सुबह थी और गोरबंद की चटख भरी लोकधुन बज रही थी। ख्वाहिश ये हुई कि बस जिंदगी सफर ही सफर में बीत जाए कि पीछे से बजता हॉर्न लगातार करीब आ रहा था। घबराकर गाड़ी को दूसरी लेन में डाल लिया। ख्वाहिश का शीशा टूट गया। हर दूसरे ही दिन यही होता, लगता कि इतनी संवेदनशीलता क्यों है? जब हम लगातार हॉर्न बजाते हैं तो आगे वाला अपनी मस्ती में ही गाड़ी चलाता है, उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, हमें ही क्यों पड़ता है! इस विचार ने सोच के सारे सिलसिले को ही अस्त-व्यस्त कर दिया और तय किया कि ‘जगह मिलने पर ही साईड दी जाएगी।’
एकाएक लगा कि इंतजार करते हुए मुसाफिर को लिफ्ट देकर हम जिंदगी को शेप दे रहे हैं और एक तरफ हो जाने के हॉर्न को अनसुना करते हुए जिंदगी हमें शेप दे रही है। और इस तरह आकार देने-पाने का सिलसिला लगातार जारी है...।

12/09/2013

बिखेरे हैं, जिंदगी ने मोती...


दो हफ्ते पहले माँ के घर से लौट रहे थे। सड़क के इस-उस पार खेतों में खासी हरियाली छाई हुई थी, होगी ही इस बार जैसे आसमान ने धरती वालों के लिए बारिश का खजाना ही खोल दिया था। दो-एक जगह खेतों में रूई-सी बिखरी दिखी... अरे काँस...! भादौ ही तो शुरू हुआ है, अभी... काँस का आना मतलब तो बारिश का समापन है। राजेश ने तुलसी को याद किया 'फूले काँस शरद ऋतु आई'। लेकिन अभी तो वर्षा का ही समय है? अरे तुलसीदास जी का वक्त ६०० साल पहले ही गुज़र गया, इस बीच दुनिया भर की नदियों में बहुत पानी बह चुका है। बहुत वक्त बदल गया है, वक्त बदलने के साथ ही सभी कुछ बदलेगा, ऋतु-चक्र भी...। तो अभी बारिश का अवसान नहीं हुआ और काँस खिल उठे, शुरुआती दौर में गर्म दिनों के बाद रातें बहुत मीठी-मीठी हो गई थी, लेकिन पिछले कुछ दिनों से दिन-रात 'अंदर-बाहर' हर कहीं गर्म था और चुभता हुआ भी।
तेज़ भागती घड़ी की सुइयाँ थी, उन सुइयों के साथ दौड़ते-भागते हम थे। न भीतर मीठापन था न बाहर, काम का दबाब-तनाव, अपेक्षाओं की किच-किच और उस पर मौसम का तीखा रुख। बस सुबह होती है शाम होती है जिंदगी तमाम होती है वाला हाल। हर सुबह कामों की फेहरिस्त ज़हन में अपडेट होती रहती है और हर शाम ये सोचकर निराशा होती है कि बहुत सारे काम कर ही नहीं पाए हैं। सुबह-शाम का यही हिसाब... फिर घर में कितनी ही हड़बड़ी मचाओ समय पर निकल ही नहीं सकते हैं और दफ्तर में भी कितनी ही जल्दी-जल्दी काम करो वक्त पर नहीं निकल पाते हैं... बस चल रहा है यही सब।
उस सुबह भी इसी तरह हड़बड़ी में निकले थे कि सड़क पर अप्रत्याशित रूप से बालम ककड़ी लिए हुए ठेले वाला खड़ा था। अब जिसने बालम ककड़ी को स्वाद चखा हो, वो इसका पागलपन समझ सकता है। एक बारगी मन हुआ कि रूककर खरीद लें, लेकिन फिर ये सोचकर गाड़ी आगे बढ़ा दी कि दिन भर गाड़ी में पड़ी रहेगी और रात तक खराब हो सकती है, देखा जाएगा शाम को...। फिर हर दीगर चीजों की तरह ये विचार भी दिमाग से उतर गया। आजकल कुछ-कुछ दिनों के अंतराल से लगता है कि खुद का हाथ छूटता जा रहा है, वक्त के तेज़ बहाव में धीरे-धीरे खुद की ऊँगली हथेली से फिसल रही है और ये अहसास लगातार गहराता जा रहा है। रास्ते भर ये विचार कोंचता रहा। इसी तरह की नकारात्मकता ज़हन पर लगातार दस्तक दे रही थी... कि वहीं बालम ककड़ी का ठेला नज़र आया। कीमत पूछी २० रुपए की एक और दूसरी वाली १० रुपए की एक... पूछा ये अंतर क्यों? तो जवाब मिला कि आकार का फर्क है एक बड़ी, एक छोटी है। फिर पूछा कि ये है कहाँ की, जवाब मिला झाबुआ की...। मनस्थिति ऐसी नहीं थी कि बारगेन किया जा सके। ठीक है २० वाली दो दे दो। वो काट-काट कर रख रहा था, तभी एक और ग्राहक भाव पूछता हुआ आ पहुँचा। उसने बारगेन किया १५ की दे दो, वो मान गया। यहाँ भी बत्ती जली हाथ में पचास रुपए का नोट था, बिना हिसाब-किताब किए कह दिया ५० में तीन लूँगी। (घर आकर बताया तो खूब खिल्ली उड़ाई गई, खैर गणित में हाथ तंग है तो खुद भी हँस कर बात टाल दी।) उसने तीन ककड़ी दी, हम चल पड़े। गाड़ी में उसे व्यवस्थित किया, फोन को बैग से निकाल ही रहे थे कि वो ककड़ी वाला एक और ककड़ी लेकर आया, एक और ले लीजिए। फिर उसने कहा अगली बार मैं आपको वहाँ की (उसे जगह का नाम याद नहीं आ रहा था)... – हमने बीच में ही टोक दिया – सैलाना की- हाँ, सैलाना की खिलाऊँगा। आप शुक्रवार को पूछतीं जाना...।
घर पहुँची तो शकल देखकर पहला सवाल था- क्या बात है? आज कुछ खास...?
सोचा.... क्या खास?
नहीं कुछ भी खास नहीं...- फिर याद आया। - हाँ आज तो ककड़ी वाले ने खुश कर दिया।
सोचा जिस तरह से इंसान की बेईमानी, धोखा, छल, झूठ और बुराई हमें व्यथित करती है, उसी तरह इंसान की अच्छाई हमें ऊर्जा से भर देती है। हमें सब कुछ अच्छा-अच्छा-सा लगने लगता है। सारी निराशा धुल जाती है। सोचें तो लगता है कि सारी बुराईयों के बावजूद हमें यदि कुछ छूता है, द्रवित करता है तो वो है अच्छाई। बुरे-से-बुरे इंसान को भी एक बस यही चीज़ नम कर सकती है... इंसान की अच्छाई।
पाया कि जिंदगी हर वक्त हमें संकेत देती है,
कोई-न-कोई सबक अपने हर व्यवहार में देती है,
बस कभी-कभी कुछ लगता है,
बाकी यूँ ही बह जाता है, तेज बारिश की तरह...।

25/08/2013

गति : सृजन और विध्वंस का एकल माध्यम


हमने पहाड़ों पर तीर्थ बना रखे हैं, शायद इसके पीछे दर्शन हो, मंतव्य हो कि प्रकृति के उस दुर्गम सौंदर्य तक हम पहुँच पाए किसी भी बहाने से... नदियों के किनारे भी, बल्कि नदियां तो खुद हमारे लिए तीर्थ हैं...। नदियाँ शायद इसलिए, क्योंकि चाहे जो जाए वे ही जीवन के नींव में हैं, जीवन का मूल हैं...। पहाड़... अटल है, निश्चल और दृढ़ है, उनका विराट अस्तित्व भय पैदा करता है। उनका अजेय होना हमें आकर्षित करता है, तभी तो मनुष्य ने पहाड़ों को आध्यात्मिकता के लिए चुना है, जाने क्या हमें वहाँ लेकर जाता है, बार-बार... इनका दुर्गम होना! क्योंकि मुश्किल के प्रति हमारी ज़िद्द ही तो विकास के मूल में है... या फिर इनका सौंदर्य... विशुद्ध... आदिम, बस अलग-अलग बहानों से इंसान वहाँ पहुँचता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पहाड़ों के शिखर पर पहुँचकर इंसान को ये अहसास होता हो कि उसने प्रकृति को जीत लिया है...!
दूसरी तरफ पानी है जो बे-चेहरा है... तरल है, चुल्लू में भर लो तो उसकी शक्ल अख्तियार कर लेता है आँखों में आँसू की बूँद-सा... इतना सरल-तरल कि पहाड़ों के बीच कहीं बारीक-सी दरार से रिसना जानता हैं। जीवन की ही तरह वह किसी अवरोध से नहीं रूकता है... रिस-रिस कर झरना बना लेने की कला जानता है... अवरोधों के आसपास से निकलने का रास्ता जानता है, गतिशील है... बहता है, कैसे भी अपने लिए रास्ते निकाल लेता है। पहाड़ रास्ता देते नहीं, नदी रास्ता बनाती है। नदी गति है... प्रवाह है और जब वो विकराल हो जाती है तो पहाड़ बेबस हो जाया करते हैं, जैसे कि उत्तराखंड में हुआ।
कितना अजीब है, जो सदियों से खड़े है वैसे ही अडिग और अचल अपने आश्रितों की रक्षा नहीं कर पाए... बह जाने दिया प्रवाह में, नदी जो एक पतली-सी धारा में बहती रही, अचानक विकराल हो गई और पहाड़ों को बेबस कर दिया उनका वैराट्य छोटा हो गया, उनकी निश्चलता ही अभिशाप हो गई। प्रवाह और गति जीत गई, जड़ता हार गई। प्रकृति जितनी सरल नज़र आती है, वह उतनी ही जटिल और रहस्यमयी है। उसने सृजन और विध्वंस दोनों के लिए एक ही माध्यम चुना है, गति... प्रवाह या तरलता।
निर्मल वर्मा को ही पढ़ा था शायद – ‘कि नदी बहती है, क्योंकि इसके जनक पहाड़ अटल रहते हैं।‘ बड़ा आकर्षक लगा था, लेकिन सवाल भी उठा था कि अटल होने में क्या सुख है, इस दृढ़ता की उपादेयता क्या है? इसका लाभ क्या है और किसको है? क्योंकि गति ही जीवन के मूल में है... संचलन ही सृष्टि की नींव में है। तभी तो इतिहास में सभ्यताएं नदियों के किनारे ही विकसित हुई हैं और जहाँ कहीं सृष्टि के समापन की चर्चा होती है, बात जल-प्रलय की ही होती है। पहाड़ टूटकर सृष्टि को समाप्त नहीं कर सकते... अजीब है, लेकिन कोई और प्राकृतिक आपदा सृष्टि के समापन की कल्पना में नहीं है... बस जल-प्रलय है। हर पौराणिक किंवदंती सृष्टि का अंत जल-प्रलय से ही करती है। मतलब जो सृजन कर सकता है विध्वंस की क्षमता भी उसी के पास है। जड़ता कितनी भी विशाल हो, पुरातन हो, भयावह या दुर्गम हो, गति से हमेशा हारती ही है। वो चाहे कितनी महीन, सुक्षम, धीमी या फिर कमजोर हो... क्योंकि गतिशीलता में ही संभावना है, सृजन की... तो जाहिर है, वही विध्वंस भी करेगी।

16/08/2013

अर्थहीनता स्वयं ‘अर्थ’ है!




बड़े लंबे समय से हलचल का आलम था। चित्त अशांत, अस्थिर और अस्त-व्यस्त... इतना गतिशील जैसे पत्थर पर्वत से लुढ़क रहा हो, इसकी गति स्वतः स्फूर्त होती है, स्वनियंत्रित नहीं... गति उसकी चाह हो या न हो, उसे गतिशील होना ही होता है। और हर गतिशीलता को कभी-न-कभी गतिहीन भी होना होता है, चाहे तो रिचार्ज होने के लिए या फिर खत्म हो जाने के लिए। खैर, मन की गति ने शरीर को भी थका दिया था, मन को स्थिरता चाहिए थी और शरीर को गतिहीनता। दोनों की साज़िश थी कि पहले शिथिलता और फिर थकान ने आ घेरा था। सारे गणित लगाए थे, काम को नुकसान तो नहीं होगा, अगले दिन काम का दबाव तो ज्यादा नहीं होगा...! सारी व्यवस्था पहले दिमाग में आई और तब छुटटी का निर्णय हो पाया। कई तरह के भावनात्मक और नैतिक दबावों और उद्वेलन से थके मन-मस्तिष्क के लिए शांति का रास्ता बस निष्क्रिय होने से ही निकल पाता है। कुछ न करो, बस खुद को छोड़ दो... मन को मुक्त कर दो, हर सवाल से, दबाव से, उद्वेलन, अपेक्षा और ख़्वाहिश से... और गतिशीलता, सक्रियता की हालत में ये संभव कैसे हो पाता है... ! तो पहले निष्क्रियता और फिर संगीत के सहारे सुकून की तलाश के लिए छुट्टी ली थी।
जाने कैसे रोशनी ज्ञान का प्रतीक हो गई, जबकि भौतिक तौर पर प्रकाश बाँटता है। जो कुछ दिखाई देता है, वो सब कुछ हमें बाँटता है, खींच लेता है, अपनी तरफ... जितने ‘विजुअल्स’ होंगे, हम खुद से उतने ही दूर होंगे। हम खुद से बाहर होंगे... बिखरे हुए होंगे। आखिर तो जब हम आँखें मूँदते हैं, तभी ध्यान में जा पाते हैं, आराधना कर सकते हैं... विचार और कल्पना कर सकते हैं। हर सृजन की पृष्ठभूमि में ‘तम’ हुआ करता है... शांति की आगोश भी ‘अँधेरा’ ही हुआ करता है। कोख के अँधेरे से लेकर सृजन के अँधेरे तक... ब्रह्मांड भी अँधेरा है, मन की तहें भी अँधेरी और गुह्य, शांति का रूप भी अँधेरा ही है, आँखें बंद करके ही तो शांति की राह पर चला जा सकता है, रोशनी तो बस भटकाती है। तो शांति के लिए पहले अँधेरा चुना, फिर संगीत.... उस अँधेरे में गज़लों लहराने लगी। नई गज़लें थीं, हर शेर को समझने की जद्दोजहद में लग गए। हर शब्द के अर्थ तक पहुँचने में भटकने लगे। हर जगह अर्थ है और हर अर्थ की पर्त है, मन उन्हीं पर्तों में उलझ जाता है, भटक जाता है, गुम हो जाता है। वो वहाँ पहुँच ही नहीं पाता, जो स्वयं अर्थ है।
थोड़ी देर की कवायद के बाद लगा कि ये बड़ा थकाऊ है और इससे तो हम कहीं नहीं पहुँच पा रहे हैं। मन तो अर्थों की परतों में भटकने लगा है। वह ‘खुद’ हो ही क्या पाएगा... आखिर हर तरफ वो सारी चीज़ें है, जो अर्थवान है... जिनके अर्थ है, एक नहीं कई-कई...। क्या इससे शांति मिल पाएगी...! बदल दिया... संगीत का स्वरूप... शब्दों से इत्तर सुर पर आ पहुँचे... सितार पर तिलक कामोद.... कुछ मौसम ने भी रहमदिली दिखाई, धूप सिमट गई और काले बादल छा गए... अँधेरा और घना और गाढ़ा हो गया। मन कुछ और खुल गया। अर्थों से परे जाने लगा क्योंकि... हर वो भाव जो वायवी है, बहुत सूक्ष्म है स्वयं अर्थ है, संगीत के सुरों से लेकर ईश्वर के वज़ूद तक, प्रेम और भक्ति के भाव से लेकर करूणा और वात्सल्य तक... सब कुछ अर्थहीन है, क्योंकि ये स्वयं ही अर्थ है। इन्हें शब्द अर्थ नहीं दे सकते हैं, शब्द तो सीमा है, परिभाषा में बाँधने की बेवजह की कोशिश...। हर ‘दृश्य’ की परिभाषा है, शब्द है, हर शब्द के अर्थ है, बल्कि तो जिनके अर्थ है, वही शब्द कहलाए... बस यहीं तक शब्द सीमित है क्योंकि हर अर्थ की पर्ते हैं... और इन पर्तों में ही भटकाव है... तो फिर क्या ‘अर्थों’ में शांति है! नहीं, शांति तो अर्थहीनता में है, जो कुछ सहज और तरल है जो बहुत सुक्ष्म और वायवी है वो सब कुछ अर्थहीन है और तर्कहीन भी... जैसे प्रेम, दया, भक्ति, सौंदर्य, सृजन, करूणा, वात्सल्य... क्योंकि इन्हें अर्थों की दरकार ही नहीं है, परिभाषाओं से परे हैं, ये स्वयं में अर्थ है। जहाँ भी अर्थ होगा, वहीं भटकाव भी होगा, मतलब 'अर्थ’ भटकाता है... चाहे उसका संदर्भ meaning से हो या फिर money से....:-)।





31/07/2013

पत्तों के आँसू


सावन लगा तो नहीं था, लेकिन बारिश लगातार हो रही थी। मौसम की मेहरबानी और बेहद अस्त-व्यस्तता भरे ‘लंबे’ हफ्ते के बाद शांत और क्लांत मन... पूरी तरह से सन्डे का सामान था...। ऐसे ही मौकों पर हम अपने आस-पास को नज़र भरकर देख पाते हैं, जी पाते हैं। घर भर पर नज़र मारते हुए ऐसे ही छत के गमलों पर नज़र गई थी। वो बड़े-बड़े पत्तों वाला पौधा एकदम खिल और हरिया गया था। मौसम ने भी तो बड़ी दरियादिली दिखाई है ना...
‘ये इनडोर प्लांट है ना...?’
‘हाँ’
‘तो इसे तो ड्रांईंग रूम में होना चाहिए...’
‘वहाँ, ले चलते हैं।’
वो पौधा ड्रांईंग रूम के कोने में आ पहुँचा था। मन उसे देख-देखकर मुग्ध हो रहा था। हफ्ते के व्यस्तता भरे दिनों में भी आते-जाते उस कोने को देखना खुश कर दिया करता था। सप्ताह की शुरुआत के दो दिन तो ऐसा मौका ही नहीं मिल पाया कि उसके करीब बैठा जा सके। इस बीच एक दिन जरूर उस पौधे के पास की जमीन बड़ी गीली-गीली-सी लगी। नज़र उठाकर छत को देख लिया, कहीं ऐसा तो नहीं छत से पानी टपक रहा हो, आखिर तो महीने भर से लगातार हो रही बारिश को कोई भी सीमेंट कब तक सहन करेगी, लेकिन छत भी सूखी ही थी, फिर लगा कि शायद पास की खिड़की खुली रह गई हो, बौछारें भीतर आ गई हो...। अमूमन काम के दिनों में दिमाग इतने झंझटों में फँसा हुआ करता है कि घर की छोटी-मोटी चीजों पर ध्यान ही नहीं जाता है। उसी शाम बाहर की तेज़ बारिश के बीच घर पहुँची तो सरप्राइसिंगली गर्मागर्म कॉफी का मग इंतजार कर रहा था। अपने कॉलेज के दिनों में कहीं पढ़-सुन लिया था कि कॉफी पीने से दिमाग का ग्रे-मैटर कम हो जाता है और वो काम करना कम कर देता है। यूँ ही दिल हावी हुआ करता है, इसलिए कॉफी से दूरी बना ली थी, पसंद होने के बावजूद...। इसलिए जब बिना अपेक्षा के आपकी पसंद की कोई चीज़ मिल जाए तो इससे बड़ा सरप्राइज और क्या होगा...? खैर तो कॉफी का कप था, विविध भारती पर पुरानी गज़लों का कोई प्रोग्राम चल रहा था, बिजली गुल थी और बारिश मेहरबान...। कोने के उस पौधे के पास ही आसन जमा लिया था, गज़ल के बोल और बारिश की ताल... कुल मिलाकर अद्भुत समां था। अचानक बाँह पर पानी की बूँद आ गिरी थी। फिर से छत को देखा था... आखिर ये पानी आया कहाँ से? खिड़की की तरफ भी नज़र गई थी, उसके भी शीशे बंद थे। फिर सोचा वहम होगा... लेकिन थोड़ी देर बाद फिर वही...। इस बार कोने वाले पौधे को गौर से देखा... उसके सबसे नीचे वाले पत्ते पर पानी जमा था... और तीन-चार पत्तों के नोंक पर पानी की बूँद टपकने की तैयारी में थी... अरे... ये क्या? ये पौधा पानी छोड़ रहा है। जब इसे छत से ला रहे थे तो गमले में भरे पानी को भी निकाल दिया था, लेकिन हो सकता है कि मिट्टी में अब भी इतनी नमी हो कि अतिरिक्त पानी तने से गुज़रकर पत्तों की नोंक से डिस्चार्ज हो रहा हो...। इंटरनेट पर देखा तो इस पौधे को आमतौर पर एलिफेंट इयर या फिर Colocasia esculenta के नाम से जाना जाता है।
कितना अद्भुत है ना प्रकृति का सिस्टम... अतिरिक्त कुछ भी अपने पास नहीं रखती हैं, जो कुछ भी उसके पास अतिरिक्त होता है, वो उसे ड्रेन कर देती है, डिस्चार्ज कर देती है। बारिश के पानी से भरा हुआ लॉन सामने पसरा नज़र आया...। समझ आया कि प्रकृति का सारा संग्रहण हमारे लिए है... कुछ भी वो अपने लिए नहीं रखती है और फिर भी उसके संग्रहण की एक सीमा है? जाने विज्ञान का सच क्या है? लेकिन प्रकृति उतना ही ग्रहण करती है, जितने कि उसको जरूरत है... जितना वो संभाल पाती है। इतना ही नहीं, इंसान को छोड़कर बाकी जीव-जंतु भी... बल्कि तो इंसान के शरीर का भी सच इतना ही है... पेट भरने से ज्यादा इंसान खा नहीं सकता है... बस मन ही है जो नहीं भरता... किसी भी हाल में नहीं भरता है, ये होता है तो कुछ और चाहने लगता है, कुछ ओर हो जाता है तो और कुछ चाहने लगता है... और खत्म होने तक यही चाहत बनी रहती है। और चाहतों का बोझ लिए ही इंसान इस दुनिया से विदा हो जाता है... मरते हुए भी बोझ से छुटकारा नहीं होता... तो फिर सवाल उठता है कि क्या हम कुछ सीखेंगे प्रकृति से....!


11/06/2013

'बड़े' होने का दर्शन बनाम मनोविज्ञान बनाम हवस...


वो दोनों बस इससे पहले एक ही बार मिले थे। और उस वक्त दोनों ने ही एक-दूसरे को ज्यादा तवज्ज़ो नहीं दी थी। इस बार भी दोनों मिले तो लेकिन गर्माहट-सी नहीं थी। शायद दोनों को पिछली मुलाक़ात याद भी नहीं आई। वो दुराव भी याद नहीं था। इस बार मिले तब भी दोनों ही तरफ हल्की-हल्की झेंप थी... नए को लेकर संकोच था। लेकिन हमउम्र थे, इसलिए ये संकोच, झेंप और ठंडापन ज्यादा देऱ ठहर नहीं पाया और दोस्ती हो गई। बचपन किसी भी ‘कल’ को लाद कर नहीं चलता है, उसके लिए हर दिन पहला दिन होता है, शायद इसीलिए वो बेफिक्र होता है...। बड़ों की बातचीत से दोनों ने एक तथ्य जाना कि कनु उम्र में नॉडी से बड़ा है। नॉडी ने उस तथ्य को हवा में उड़ा दिया... क्योंकि उसे ‘छोटा’ होना मंज़ूर नहीं था और कनु ने उसे तुरंत लपक लिया, क्योंकि उसे बहुत दिनों बाद ‘बड़ा’ होने का मौका हासिल हुआ। थोड़ी देर झेंप के खेल के बाद दोनों ने एक-दूसरे से दोस्ती कर ली और साथ खेलने लगे। अब दो हमउम्र बच्चे साथ खेलेंगे तो झगड़ेंगे भी... तो थोड़ी ही देर बाद दोनों के बीच झगड़ा भी हो गया... वज़ह थी बड़ा होना...। कनु ने तो अपनी पसंद का सच लपक लिया था कि वो बड़ा है, लेकिन नॉडी उस सच से बचना चाह रहा था, क्योंकि वो भी बड़ा होना चाह रहा था। खैर... बच्चों के झगड़े क्या? अभी झगड़े और बिना किसी प्रयास के दोस्ती भी हो गई... क्योंकि वही... उनके ज़हन में कोई ‘कल’ नहीं ठहरता है।
दोनों के झगड़े की वजह सुनकर सारे ‘बड़े’ हँसे... हँसने की बात ही थी, अब ये कोई बात है कि कौन बड़ा है, इसे लेकर झगड़ा हो... अब भई जो बड़ा है वो बड़ा है और जो छोटा है, वो छोटा है... लेकिन क्या सचमुच हँसने की ही बात थी? सोचने की नहीं... कि क्यों बच्चा, ‘बड़े’ होने का अर्थ जाने बिना ‘बड़ा’ हो जाना चाहता है! जबकि जो बड़े हो गए हैं, वो अपना बचपन याद करते हुए आँहे भरते हैं कि वो दिन भी क्या दिन थे...? कम-अस-कम ये ऐसा तो कतई नहीं है कि जो गुज़र गया है, वो ही खूबसूरत है। फिर क्या वाकई हम बड़े हक़ीक़त में छोटे होना चाहते हैं, जबकि सारी लड़ाई तो हर स्तर पर ‘बड़े’ हो जाने की है। बच्चा बड़ा होना चाहता है, क्योंकि उसे लगता है कि बड़े होने में सत्ता है, जीत है, अधिकार, स्वतंत्रता है। हर ‘छोटा’ बड़ा हो जाना चाहता है, हर लघु विराट् हो जाना चाहता है... और सारा जीवन उसी जद्दोज़हद का हिस्सा बन जाता है। ये बच्चों का भी सच है और बड़ों का भी... बच्चों का सच तो वक्ती है, लेकिन बड़ों का सार्वकालिक, सार्वत्रिक, सार्वभौमिक है।
हम उम्र के तथ्य को जानते हैं तो ओहदे में, प्रभाव में, बल में, अर्थ में, बुद्धि में..., बड़े होना चाहते हैं, और यदि नहीं हो पाते हैं तो किसी ‘बड़े’ के बड़प्पन के छाते के नीचे आ जाना चाहते हैं, क्योंकि जो मनोविज्ञान बच्चे लघु रूप में समझते हैं, हम उसके विराट् रूप को समझ चुके होते हैं। हम प्रभावित करना चाहते हैं, अधिकार चाहते हैं, सत्ता और शासन चाहते हैं और इन्हीं चीजों के लिए हम ‘बड़े’ होना चाहते हैं, ऐसे नहीं तो वैसे... किसी भी तरह से। शायद सारा स्थूल विश्व ‘बड़े’ हो जाने की..., ‘विराट्’ हो जाने की ख़्वाहिश से संचालित होता है। इसी से प्रकृति में गति है, इसी में विकार भी। सिर्फ इंसान ही क्यों प्रकृति भी तो लघु से विराट का रूप ग्रहण करती है। एक पतली-सी धारा नदी में और नदी समुद्र में परिवर्तित होती है, बीज, पौधे में और पौधा पेड़ में बदलता है। कली, फूल में और फूल फल में बदलता है। वीर्य, भ्रूण में और भ्रूण शिशु में बदलता है। बच्चा, किशोर होकर वयस्क और फिर जवान होता है। गोयाकि ‘बड़ा’ हो जाना मात्र ख़्वाहिश ही नहीं, लक्ष्य भी है। या फिर बड़ा होना नियति... क्योंकि ‘विराट्’ विकार भी है और विनाश भी... ।

03/06/2013

जान की कीमत...


बॉक्स की न्यूज थी... हमेशा की तरह फ़र्ज अदायगी को महिमामंडित किया गया था। वीसी शुक्ल के युवा पीएसओ ने ये कहकर आखिरी गोली खुद को मार ली कि बस हम अब आपकी रक्षा नहीं कर सकते हैं। टीवी और अख़बार लगे हुए हैं, उसके आखिरी शब्दों की जुगाली में। ख़बर तो जाहिर है बहुत बड़ी थी, इतनी बड़ी संख्या में इस देश में राजनीतिक लोगों की मौत कभी हुई ही नहीं... पूरा इतिहास खंगाल लें। तब भी नहीं जब श्रीपेरंबदुर में राजीव गाँधी की आत्मघाती हमले में मौत हुई थी। जबकि वे वहाँ चुनावी रैली को संबोधित करने गए थे और जाहिर है कि उनके साथ वहाँ स्थानीय राजनीतिज्ञों की फ़ौज होगी... लेकिन तब भी इतने राजनीतिज्ञ हताहत नहीं हुए थे, जितने कि सुकमा में हाल ही में हुए नक्सली हमलों में हुए। छत्तीसगढ़ की राजनीति के बारे में बहुत जानकारी नहीं है, अरे... राजनीति के बारे में ही जानकारी कम है, जबकि इसके बारे में ही सबसे ज्यादा जानकारी होनी चाहिए थी, अब पढ़ा तो यही है ना! कुछ समय पहले अपने प्रोफेसरों से मिलने का 'संयोग' हुआ, अरे सौभाग्य-वौभाग्य कोई बात नहीं है और दुर्भाग्य तो खैर है ही नही... हाँ तो उनसे मिलने के दौरान बहुत सालों बाद बल्कि यूनिवर्सिटी छोड़ने के बाद याद आया कि पॉलिटिकल-साइंस पढ़ा है। शायद राजनीति ने जल्दी ही इससे मोहभंग कर दिया। नहीं पॉलिटिकल-साइंस से नहीं... बल्कि पॉलिटिक्स से... पॉलिटिकल-साइंस तो बहुत सारी चीजों की तरह ही दुखती रग है। खैर तो कहा तो ये जा रहा है कि हालिया नक्सली हमले ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के फ्रंट लाइन नेताओं की बलि ले ली। होगा ही, क्योंकि इस हमले में कांग्रेस के बहुत सारे कद्दावर नेताओं की जान ले ली और इसमें कुछ ऐसे लोगों की भी मौत हुई जो बेनाम है, अनजान और नामामूल किस्म के हैं। ड्रायवर, सहयोगी, सुरक्षा कर्मी आदि-आदि... महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल और इसी तरह के बड़े-बड़े नामों के बीच ये गुमनाम लोग। राजनीतिज्ञ तो सारे-के-सारे चुनाव की तैयारियों के लिए वहाँ गए थे, चुनाव जीतते तो कुछ-न-कुछ तो मिलता ही, लेकिन उनके साथ जो लोग मारे गए उनका क्या? उन्हें क्या मिला? क्या मिलता?
ये सवाल बड़ा असुविधाजनक है, कह तो सकते हैं कि बड़ा अहमकाना भी। अरे यही व्यवस्था है, ऐसा ही होता आया है। अरस्तू ने भी तो कहा है कि महत्वपूर्ण काम करने वालों को सहयोगियों (उन्होंने तो खैर बाकायदा गु़लाम कहा था, लेकिन जरा सभ्य हो गए हैं, इसलिए शब्द थोड़े सॉफ्ट कर दिए हैं।) की जरूरत होती ही है। आखिर तो जो वीआईपी होते हैं, वे देश की संपदा होते हैं, व्यवस्था की रीढ़... उनका वज़ूद कितना अहम है वो इस बात से तय होता है कि उनके जीवन के लिए कितने लोग अपना जीवन कुर्बान कर सकते हैं? आखिर आम लोगों की जिंदगी का मतलब ही क्या है? लेकिन ये कौन तय करता है कि किसकी जिंदगी कितनी महत्वपूर्ण हैं और ये अधिकार किसने दिया है, किसको दिया है और किस नाते दिया गया है? पात नहीं ‘जीवन’ के प्रति संवेदना बढ़ गई है, इसलिए या फिर ‘इंसानी जीवन’ के प्रति व्यवस्थागत असंवेदनशीलता कम हुई है, इसीलिए ये सवाल परेशान कर रहा है कि कैसे और क्यों किसी की जान की कीमत कम और किसी की ज्यादा हो जाती है? और ये कीमत कौन तय करता है और उसका आधार क्या होता है? इसलिए कुछ बेवजह के सवाल आकर घेरते रहते हैं... व्यवस्था की क्रूरता की वजह से, आक्रोश पैदा होता है और इसलिए लगता है कि व्यवस्थाएं, अपने लिए सिर्फ ‘बोनसाई’ चाहती हैं... मनुष्यों को अपने हिसाब से कांट-छांट कर बनाने से ही व्यवस्थाएं सर्वाइव करती हैं और हम इतने कंडिशंड हो चुके हैं कि हमें इसमें कुछ भी नया, कुछ भी गलत नहीं लगता है...?
आखिर क्यों किसी के लिए अपनी जान की कुर्बानी दें...? जिसके लिए कुर्बानी दी जा रही है, वो इतना महत्वपूर्ण क्यों हैं कि कइयों की जान उस पर न्यौछावर कर दी जानी चाहिए...! तो क्या ऐसा है कि किसी जिंदगी का मूल्य महज पैसा है? सिर्फ पैसा ही वो वजह होती है, जिसकी वजह से कोई अपनी जान का सौदा करता है और सिर्फ पैसा ही वो वजह है, जिसकी वजह से किसी की जान बहुत सारे लोगों की जान से ज्यादा कीमती हो जाती है। तो फिर मानवता, इंसानियत, लोकतंत्र, समानता और भाईचारा सिर्फ शब्द नहीं रह जाते हैं, खोखले, अर्थहीन और बे-ग़ैरत शब्द। सिर्फ धन वो शब्द नहीं हो जाता है, जिसका अर्थ है! और फिर हमारी सारी संवेदना, ज्ञान, दर्शन, विचार, व्यवस्था, समाज सब कुछ बेमानी नहीं हो जाता है, जब अर्थ ही एकमात्र संचालक नजर आता हो तो... !